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अर्चनार्चन
एवं रसायन माना है जबकि धर्मान्धता को हालाहल विष । यह भी कहा है कि बंधन दो प्रकार के होते हैं । शरीर को बांधने वाले बंधन प्रत्यक्ष रूप में दिखाई देते हैं, किन्तु आत्मा को बाँधनेवाले बन्धन अप्रत्यक्ष एवं मनोभावों के रूप में होते हैं। इन्हीं भावनाओं से कर्म-बंधन होते हैं । हृदय की मिथ्यात्व ग्रन्थि के नष्ट होने से आत्मा 'स्व' और 'पर' का रहस्य समझ लेती है और मुक्ति-धाम की अधिकारिणी बन जाती है। वस्तुतः उत्कट भावनाएँ श्रेष्ठ गति की प्राप्ति का कारण होती हैं। वे ही संसारी जीव को लौकिक स्तर से ऊपर उठाकर लोकोत्तर जीवन में प्रविष्ट कराती हैं।
अर्चना के फल : साध्वी उमरावकंवरजी 'अर्चना' के प्रवचनों का यह तीसरा संग्रह श्री श्रीचन्द सुराना 'सरस' एवं श्रीमती कमला जैन 'जीजी' के सम्पादन में मई, सन् १९७७ ई. में प्रथम बार मुनिश्री हजारीमल स्मृति प्रकाशन, ब्यावर द्वारा प्रकाशित हुआ। इसकी द्वितीयावृत्ति सन् १९८३ ई. में सामने आयी। ग्रन्थ की अनुक्रमणिका दो भागों में विभक्त है । एक का नाम है 'लोकयात्रा' तथा दूसरे का नाम है 'अन्तर्यात्रा' । प्रत्येक विभाग में ग्यारह प्रवचन संकलित हैं।
प्रत्येक विभाग के कतिपय महत्त्वपूर्ण एवं ध्यानाकर्षक अंश इस प्रकार हैं:
लोकयात्रा
१. जब मनुष्य के हृदय में करुणा, सहानुभूति, क्षमा, दया आदि दिव्यगुणों की लहरें
उठती हैं, तब समझना चाहिए कि उसमें देवत्व का प्रकाश हुआ है। २. जैसा संकल्प होता है, तदनुसार ही मनुष्य बनता है।
३. विचारों का ही मूर्त रूप मनुष्यत्व, देवत्व या पशुत्व है । ' ४. आचार-शुद्धि का सारा दारोमदार विचारशुद्धि पर है । ५. संघर्षों के सामने घुटने न टेककर जिन्होंने अपने चरण आगे बढ़ाये हैं, उन्होंने ही
सफलता के शिखर का स्पर्श किया है । ६. अहिंसा कायरों के हाथों में पड़कर स्वयं निर्बलता का रूप धारण कर लेती है।
जीवन का सबसे बड़ा लक्षण है-गतिशीलता । ८. आत्मविश्वास के साथ निर्धारित लक्ष्य की ओर सतत बढ़ने से सफलता मिलती है। ९. मन को जोतना साधक के लिये परम जय है । १०. जहाँ दृढ विश्वास होता है, वहीं कार्य की सिद्धि होती है ।
समाहिकामे समणे तवस्सी " ओ श्रमण समाधि की कामना करता है. वहीं तपस्वी है।
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