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संत और पंथ
करते हैं । क्या ऐसे संत और शिष्य वास्तव में सद्गति प्राप्त कर सकते हैं ? नहीं, दोनों ही लोभ-लालच और राग-द्वेष रूपी बन्धनों से जकड़े रहने के कारण किस प्रकार संसार-मुक्त हो सकते हैं ? एक मारवाड़ी दोहे में सरल किन्तु सत्य कहा है
लोभी गुरु लालजी चेला दोनों खेलें दाव । दोई डूबे बापड़ा, बैठ पत्थर की नाव ॥
यही बात एक छोटे से उदाहरण में बताई गई है कि एक गाँव में एक संत ने चातुर्मास किया और प्रतिदिन राम और कृष्ण यादि की कथा सुनाई । चातुर्मास की समाप्ति के समय संत ने सोचा - " मैंने लम्बे समय तक कथा बाँची है अतः अधिक नहीं तो कम से कम पाँच सौ रुपये और कपड़े तो दक्षिणा में मिलेंगे ही ।"
उधर गाँव वालों ने सोचा- "इस बार फसल बिगड़ गई है, आमदनी कम होगी । दूसरे, महात्मा जी को तो अब जाना ही है, फिर नाराज होकर भी हमारा क्या बिगाड़ लेंगे ? हम सब पाँच-पाँच रुपये इक्ट्ठ करके इन्हें सौ रुपयों में ही निपटा देंगे। अब तक भगवान् की कथा सुनकर हमने पुण्य तो कमा ही लिया है, इसलिये फ़िक्र की कोई बात नहीं ।
इस प्रकार गुरु और चेले, दोनों ही स्वार्थ, लोभ और लालच रूपी पत्थर की नाव में सवार रहते हैं और उसके द्वारा भव-सागर पार करना तो दूर की बात है, अतल गर्त में डूब जाते हैं ।
सच्चे संत वह होते हैं जो " आप तिरे औरन को तारे।' इस बात को सार्थक कर सकते हैं । ऐसे सच्चे और विरले संतों की जानकारी करने की बात ही चल रही है । 'योगशास्त्र' में सच्चे संत और दूसरे शब्दों में, सच्चे गुरु की पहचान करने के लिये उनके लक्षण इस प्रकार बताए गए हैं:
महाव्रतधरा धीरा, भैक्ष्यमात्रोपजीविनः । सामायिकस्था धर्मोपदेशका गुरवो मताः ॥
अर्थात् — हिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह, इन पाँचों महान् व्रतों का पूर्ण रूप से पालन करनेवाले, धैर्यवान्, शुद्ध भिक्षा के द्वारा जीवन निर्वाह करनेवाले, संयम में दृढ़ एवं स्थिर रहनेवाले और सच्चे धर्म का निःस्वार्थ भाव से उपदेश देने वाले संत-महात्मा ही गुरु माने गए हैं ।
इन लक्षणों की कसौटी पर कसकर हम जानकारी हासिल कर सकते हैं कि संत कहलाने की योग्यता किसमें है । जिसमें ये लक्षण शुद्ध रूप में पूर्णतया प्राप्त होते हों, उनके सदुपदेशों के द्वारा व्यक्ति संवर, निर्जरा और मोक्ष के मार्ग पर अग्रसर हो सकता है ।
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समाहिकामे समणे तवस्सी
जो भ्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी है ।"
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