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होकर पुनः मानव समाज में आया, किन्तु व्यावहारिक जीवन के प्रथम चरण में ही उसके तपस्वी होने का गर्व, कमंडलु के प्रति आसक्ति और क्रोध के भूत ने अपने ज्यों के त्यों विद्यमान होने का प्रमाण दे दिया। दूसरी ओर चार दिन पहले ही बने युवा साधु ने बिना गूढ़ ज्ञान प्राप्त किये मौर घोर तपस्या किये बिना ही अपने मन की निर्मलता का परिचय नम्रता, लघुता, सहनशीलता, अक्रोधता तथा अनासक्तता के द्वारा दिया ।
उसीलिये मैंने कहा कि धर्म का सच्चा अस्तित्व पोथियों को पढ़ पढ़कर उनका अम्बार लगा लेने से अथवा बाह्य क्रिया कांडों के करने से नहीं जाना जाता, वह आत्म-धर्म है की और आत्मा के अन्दर रहे हुए रागद्वेषादि के कम होने पर जाना जा सकता है । मनुष्य प्रत्येक प्रवृत्ति, यथा-बोलना, चलना, खाना पीना अथवा व्यापारादि कार्य, धर्म से श्रोत-प्रोत होने चाहिये ।
तृतीय खण्ड
स्पष्ट है कि शुद्ध धर्म अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, दया, क्षमा, ईमानदारी तथा सच्चे देव, गुरु और धर्म पर श्रद्धा होना है तथा जीवन व्यवहार की बातों में उनका बना रहना कसौटी पर कसे जाने के समान है। किन्तु ध्यान रखने की बात यह है कि उपर्युक्त धर्म - क्रियानों को करने मात्र से ही व्यक्ति अगर यह समझ ले कि हम कसौटियों पर खरे उतर गए हैं, तो यह भी उसकी भूल है । सबसे बड़ी कसौटी किसी भी क्रिया के पीछे रही हुई भावना होती है ।
पाठ-पूजा, प्रार्थना साधना या तपस्या करने पर यदि अहंकार पनप गया तो समझना चाहिये कि साधक धर्म की कसौटी पर खोटा साबित हुआ है, इसी प्रकार दान जैसा शुभ कृत्य करके दानी गर्व से गर्दन अकडा कर चलने लग जाय तो भी उसकी दान क्रिया कसौटी पर खरी नहीं उतरती । क्योंकि दान देकर कुछ धन का त्याग किया किन्तु घमंड का श्राकर जम गया तो लाभ क्या हुआ ?
दानव मन में
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सच्चा दान
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एक बार महात्मा बुद्ध ने राजगृह नगर में चातुर्मास किया। जब उनके बिहार करने का समय आया तो महाराज बिम्बसार से लेकर अनेक श्रेष्ठियों ने भगवान् बुद्ध के समक्ष बढ़चढ़कर दान में महल, भूमि और रुपयों की सूची बनानी प्रारम्भ की अधिक देने वाले स्वयं को श्रौरों की अपेक्षा अधिक दानवीर मानकर कम देने वालों को तिरस्कार की भावना से देख रहे थे। उपाधय में दान की अधिकता के अनुसार बैठने के स्थान निश्चित हुए, यानी जिसने अधिक दिया वह भागे और कम देने वाले उनसे पीछे बैठते चले गए। बुद्ध शांत भाव से यह सब देखते रहे । उन्होंने किसी की प्रशंसा अथवा सराहना के रूप में एक शब्द भी नहीं कहा ।
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