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अर्चनार्चन
चतुर्थ खण्ड | ७० जैनधर्म की साधना-उपासना
अन्य अनेक धर्मों के अनुसार जैनधर्म में भी आत्मोन्नति अथवा आत्मविकास की पूर्ण अवस्था मोक्ष ही है । मोक्ष जीवमात्र का चरम और परम लक्ष्य है। जो आत्मा अपने सम्पूर्ण कर्मों का क्षय करके ज्ञान, दर्शन आदि अनन्त गुणों को विकास की सर्वोच्च सीमा पर ले जाती है वह अपने शुद्ध स्वरूप में शाश्वत काल के लिये स्थिर हो जाती है। इस स्थिरता को ही पुनः-पुनः जन्म-मरण से मुक्ति अथवा मोक्ष कहते हैं । मोक्ष या मुक्ति का कोई विशेष स्थान नहीं है अपितु प्रात्मा का शुद्ध चिन्मय स्वरूप की प्राप्ति कर लेना ही मुक्ति है। मुक्त होने के पश्चात् न वह कहीं जन्म लेती है और न ही पुनः कर्मों से प्राबद्ध होती है। जैनधर्म की साधना मुख्य रूप से आत्मा की साधना, दूसरे शब्दों में प्रात्मा के विकास की साधना है। जैनधर्म में किसी अवतार का प्रावधान नहीं है। इस धर्म के जितने भी अरिहंत अथवा तीर्थंकर होते हैं-सभी आत्मा की साधना अथवा उपासना द्वारा आत्मा का ऊर्ध्वमुखी विकास करके उक्त पद को प्राप्त करते हैं। जैनधर्म में एक मत से यही स्वीकार किया गया है कि जीव अपने राग-द्वेष को नष्ट करके वीतराग बनकर ईश्वरत्व या परमात्म-पद को प्राप्त करता है। जैनधर्म ईश्वर की सत्ता में विश्वास करता है अतः आस्तिक धर्म है, किन्तु यह अवतारी ईश्वर पर विश्वास न करके प्रात्मा को ही परमात्मा बनाने में विश्वास रखता है।
जैनदर्शन में मोक्ष-प्राप्ति के अनेकों मार्ग बताए हैं, यही कारण है कि इसे सहस्ररूपा साधना भी कहा गया है। कहीं ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप इन चारों को मोक्ष का मार्ग बताया है और कहीं तप का चारित्र में समावेश करके ज्ञान, दर्शन और चारित्र को मुक्ति का साधन कहा है। कहीं बताया है
। 'तवसुदवदवं चेदा झाणरहधुरन्धरो हो।'
-तप, श्रुत और व्रत का पालन करने वाली आत्मा ही ध्यानरूपी रथ पर आरूढ़ हो सकती है और ध्यान से ही जीव को अन्तिम साध्य मोक्ष की उपलब्धि होती है। इस प्रकार मोक्ष का साधन ध्यान और ध्यान के साधन तप, श्रुत और व्रत हैं।
तपःसाधना
कर्मबद्ध प्रात्मा को मुक्त करने के लिये तप:साधना अनिवार्य है। तप ऐसी अग्नि है जो अष्ट कर्म-रूप काष्ठों को भस्म कर देती है और प्रात्मा अपने अद्वितीय शुद्धस्वरूप को प्राप्त कर लेती है। निशीथचणि में भी बताया गया है-'तप्यते प्रणेण पावं कम्ममिति तपः।' जिस प्रवृत्ति से पाप-कर्म तप्त होकर जल जाते हैं उसे ही तप कहते हैं।
वैसे तो आत्म-शुद्धि के लिये की जाने वाली प्रत्येक प्रवृत्ति तप कहला सकती है और ये प्रवृत्तियाँ असंख्य हैं, अतः इन्हें सीमा में बाँधना कठिन है फिर भी जैनधर्म में सम्पूर्ण तपोमार्ग को दो भागों में विभक्त किया गया है।
(१) पहले भाग में बाह्य तप आते हैं जिनके नाम हैं--प्रनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचर्या, रस-परित्याग, कायक्लेश तथा प्रतिसंलीनता।
(२) दूसरे प्रकार के तप आभ्यंतर तप कहलाते हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं:प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग ।
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