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तूफानों से टक्कर लेने वाला आस्था का दीपक
व प्रसन्न होकर हिमालय से नीचे आया। लोगों की बातचीत से उसे पता चला कि आजकल कंभ का मेला चल रहा है। संन्यासी ने सोचा-त्रिवेणी में स्नान करके और पूण्य का लाभ उठाना चाहिये।
संन्यासी चल पड़ा और मेले में सम्मिलित हो गया। मेले के कारण मनुष्यों की बड़ी भोड़ थी। संन्यासी अपना कमंडलु लेकर संगम की ओर चल पड़ा किन्तु जन-समूह की धकापेल से टक्कर खाकर एक युवा संन्यासी प्रपना संतुलन बनाए नहीं रख सका और हिमालय से लौटे हुए घोर तपस्वी महाराज से जोर से टकरा गया। संन्यासी गिर पड़े, कुछ चोट आई पर उनका कमंडलु गिर गया तथा लोगों के पैरों से कुचला जाकर फूट गया।
युवा संन्यासी अत्यन्त दुःखी हुआ और उसने क्षमा माँगते हुए महात्माजी को सहारा देकर खड़ा किया। किन्तु संन्यासोजी मारे क्रोध के प्रागबबूला हो उठे और बोले-"दुष्ट ! चार दिन के साधुपने में ही घमंड के मारे अाँखें कपाल पर चढ़ाए घूमता है। मेरे जैसे सिद्ध तपस्वी को टक्कर मारता है ?"
"नहीं भगवन ! मैंने जानबूझकर ऐसा नहीं किया, लोगों के धक्कों ने मेरा संतुलन बिगाड़ दिया था। मैं आपके चरण छूकर पुनः पुनः क्षमायाचना करता हूँ।" यह कहने के माथ ही युवा संन्यासी महात्माजी के चरणों में झुक गया।
किन्तु उन सिद्ध संन्यासी का क्रोध शांत नहीं हया था। उन्होंने उस सौम्य और युवा साधु को पैर से ठोकर मारते हुए क्रुद्ध स्वर से कहा
"झूठ बोलता है ! एक तो टक्कर मारकर मुझे गिरा दिया, दूसरे मेरे कमंडलु को फुड़वाकर मेरा नुकसान कर दिया। अब क्या तेरा बाप मुझे नया कमंडलु लाकर देगा ?"
युवक संन्यासी उठ खड़ा हुआ। महात्माजी के चूर-चूर हुए कमंडल को देखकर उसे बड़ा पश्चात्ताप और दुःख हुा । पर उसने तुरन्त ही अपना कमंडलु तपस्वी महाराज की अोर बढ़ाते हुए कहा
'प्रभो ! आप कृपा करके मेरा यह कमंडलु ग्रहण करके मुझे कृतार्थ कीजिये । मैंने तो चंद दिन पहले ही संन्यास लिया है अतः यह भी नया है।"
. संन्यासी जी ने उसे घूरते हुए कमंडलु झपट लिया तथा बिलंब हो जाने के कारण जल्दी जल्दी राम-नाम जपते हए त्रिवेणी के पावनजल में गोते लगाकर पुण्योपार्जन करने चल दिये।
बंधुओ ! संन्यासी ने अहंकार, क्रोध, आसक्ति एवं कटु-भाषण आदि सम्पूर्ण दोषों . का नाश करने के लिये एकान्तवास करते हुए वर्षों तपस्या की और अपनी समझ में निर्मल
समाहिकामे समणे तवस्सी " मो श्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी है।"
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