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आरनस्वन
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चतुर्थखण्ड / २ विशेषताओं का समावेश हो गया जो अन्यत्र उपलब्ध नहीं हो सकतीं। इस अपेक्षा से भगवान् महावीर की नीति को दो शीर्षकों में विभाजित किया जा सकता है
१. -भगवान् महावीर की विशिष्ट नीति ।
२- भगवान् महावीर की सामान्य नीति ।
सामान्य नीति से अभिप्राय नीति के उन सिद्धान्तों से है, जिनके ऊपर अन्य दार्शनिकों, मनीषियों और धर्म-सम्प्रदाय के उपदेष्टाओं ने भी अपने विचार प्रकट किये हैं। ऐसे नीति सिद्धान्त सत्य, अहिंसा आदि है किन्तु इन सिद्धान्तों का युक्तियुक्त तर्कसंगत विवेचन जैन ग्रन्थों में प्राप्त होता है। भगवान् महावीर और उनके अनुयायियों ने इन पर गम्भीर चिन्तन किया है।
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विशिष्ट नीति से अभिप्राय उन नीति सिद्धान्तों से है, जिन तक अन्य मनीषियों की दृष्टि नहीं पहुँची है। ऐसे नीति सिद्धान्त अनाग्रह, धनेकान्त यतना, समता अप्रमाद आदि हैं। यद्यपि यह सभी नीति सिद्धान्त सामाजिक सुव्यवस्था तथा व्यक्तिगत व्यावहारिक सुखी जीवन के लिए थे फिर भी अन्य धर्म प्रवर्तकों के चिन्तन से यह प्रछूते रह गये। भगवान् महावीर और उनके प्राज्ञानुयायी श्रमणों, मनीषियों ने नीति के इन प्रत्ययों पर गम्भीर विचार किया है और सुखी जीवन के लिए इनकी उपयोगिता प्रतिपादित की है।
जैन नीति के मूल तत्त्व
उपर्युक्त सामान्य और विशिष्ट नीति के सिद्धान्तों को भली भाँति हृदयंगम करने के लिए यह अधिक उपयोगी होगा कि जैन नीति अथवा भगवान् महावीर की नीति के मूल प्राधारभूत तत्त्वों को और उनके हार्द को समझ लिया जाय ।
जैन नीति के मूल तत्व हैं, पुण्य, संवर धौर निर्जरा ध्येय हैं-मोक्ष प्रालय, बंध तथा पाप अनैतिक तत्त्व हैं। जैन नोति का सम्पूर्ण भाग इन्हीं पर टिका हुआ है ।
पाप धनैतिक है, पुण्य नैतिक, प्रात्रव घनैतिक है, संवर नैतिक, बंध अनैतिक है, निर्जरा नैतिक । इस सूत्र के आधार पर ही सम्पूर्ण जैन-नीति को समझा जा सकता है ।
पाप और पुण्य शब्दों का प्रयोग तो संसार की सभी नीति और धर्म-परम्पराधों में हुआ है, सभी ने पाप को अनैतिक बताया और पुण्य की गणना नीति में की है। यह बात अलग है कि उनकी पाप एवं पुण्य की परिभाषाओं में अन्तर है, इनकी परिभाषायें उन्होंने अपनी-अपनी कल्पनाओं में बाँधकर की है।
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किन्तु मासव संवर बंध और निर्जश शब्द जैन नीति के विशेष शब्द हैं। इनका पर्व समझ लेना अभीष्ट है।
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घालव का नीतिपरक अभिप्राय है वे सभी क्रियाएँ जिनको करने से व्यक्ति का स्वयं का जीवन दुःखी हो, जिनसे समाज में अव्यवस्था फैले, प्रातंक बढ़े, विषमता पनपे समाज के, देश के राष्ट्र राज्य और संसार के अन्य प्राणियों का जीवन अशान्त हो जाय, वे कष्ट में पढ़ जायें।
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जैन-नीति ने आस्रवों के प्रमुख पाँच भेद माने हैं - १. मिथ्यात्त्व ( गलत धारणा ), २. अविरति ( श्रात्मानुशासन का अभाव ), ३. प्रमाद ( जागरूकता का प्रभाव - असावधानी),
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