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चतुर्थ खण्ड | १२
भार
मानव छटपटा रहा था। इन बन्धनों के दुष्परिणामस्वरूप नैतिकता का ह्रास हो गया और अनैतिकता के प्रसार को खुलकर फैलने का अवसर मिल गया।
ईश्वरवाद तथा ईश्वरकतत्ववाद के सिद्धान्त का लाभ उठाकर ब्राह्मणों और क्षत्रियों ने अपनी विशिष्ट स्थिति बना ली। साथ ही ईश्वर को मानवीय भाग्य का नियंत्रक और नियामक माना जाने लगा। इससे मानव की स्वतन्त्रता का ह्रास हुआ, नैतिकता में भी गिरावट आई।
भगवान् ने मानव को स्वयं अपने भाग्य का निर्माता बताकर मानवता की प्रतिष्ठा तो की ही, साथ उसमें नैतिक साहस भी जगाया।
इसी प्रकार इस युग में स्नान (बाह्य अथवा जल स्नान) एक नैतिक कर्त्तव्य माना जाता था, इसे धार्मिकता का रूप भी प्रदान कर दिया गया था, जब कि बाह्य स्नान से शुद्धि मानना सिर्फ रूढ़िवादिता है।
भगवान् ने स्नान का नया प्राध्यात्मिक लक्षण30 देकर इस रूढ़िवादिता को तोड़ा।
ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा देना भी उस युग में गृहस्थ का नैतिक-धार्मिक कर्तव्य बना दिया गया था। इस विषय में भी भगवान् ने नई नैतिक दृष्टि देकर दान से संयम को श्रेष्ठ बताया। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा कि प्रतिमास सहस्रों गायों का दान देने से संयम श्रेष्ठ है।" वस्तुतः भगवान महावीर दान के विरोधी नहीं हैं, अपितु उन्होंने तो मोक्ष के चार साधनों में दान, शील, तप और भाव में दान को प्रथम स्थान दिया, किन्तु उस युग में ब्राह्मणों को दान देना एक रूढ़ि बन गई थी, इस रूढ़िग्रस्तता को ही भगवान् ने तोड़कर मानव की स्वतन्त्रता तथा नैतिकता की स्थापना की थी।
भगवान के कथन का अनुमोदन धम्मपद३२ में भी मिलता है और गीता के शांकर भाष्य 33में भी। उपसंहार
इस सम्पूर्ण विवेचन से स्पष्ट है कि भगवान महावीर ने नीति के नये आधारभूत सिद्धान्त निर्धारित किये । संवर आदि ऐसे घटक हैं जिन पर अन्य विद्वानों की दृष्टि न जा सकी।
उन्होंने अनाग्रह, अनेकांत, यतना, अप्रमाद, समता, विनय प्रादि नीति के विशिष्ट तत्त्व मानव को दिये । सामूहिकता को संगठन का आधार बताया और श्रमण एवं श्रावक को उसके पालन का संदेश दिया । सामान्यतया, सभी अन्य धर्मों ने धर्म तत्त्व को जानने के लिए मानव को बुद्धि-प्रयोग की आज्ञा नहीं दी, यही कहा कि जो धर्म-प्रवर्तकों ने कहा है, हमारे शास्त्रों में लिखा है, उसी पर विश्वास कर लो। किन्तु भगवान् महावीर मानव को अंधविश्वासी नहीं बनाना चाहते थे, अतः 'पन्ना समिक्खए धम्म' कहकर मानव को धर्मतत्त्व में जिज्ञासा
३०. उत्तराध्ययनसूत्र १२०४६ ३१, उत्तराध्ययनसूत्र ९।४० ३२. धम्मपद १०६ ३३. देखिए, गीता ४/२६-२७ पर शांकर भाष्य
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