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अर्चनार्चन
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चतुर्थ खण्ड / ५८ का सम्बन्ध है । इस सम्बन्ध से प्रत्येक श्रमण श्रावकमात्र के लिए वन्दनीय है। राजा, प्रशासक व्यापारी, आचार्य, शिल्पी, श्रमिक - ये सभी श्रावक हैं। श्रमण का स्थान इनसे उच्चतर है । ये श्रमण का स्थान नहीं ले सकते हैं । उसके समान इनकी दीप्ति और गरिमा भी नहीं हो सकती है। भ्रमण लोक का प्राणी होता हुआ भी वस्तुतः लोकोत्तर है। वह विग्रहवान् धर्म है। वह समाज की म्रात्मा है। जिस समाज में श्रमण परम्परा जीवित रहती है उसका कभी नाश या उच्छेद नहीं हो सकता है ।
का है, वे वस्तुतः भारतीय
श्रमण परम्परा वर्णव्यवस्था मौर जाति व्यवस्था से भिन्न है। भ्रमण ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र से उच्चतर तथा श्रेष्ठतर है। किसी भी वर्ण या जाति का सदस्य प्रयत्न करने पर श्रमण हो सकता है। यही श्रमण मध्ययुग में संत के नाम से जाना गया है ! कुछ लोग इसी को 'निरगुनिया' कहते हैं, क्योंकि वह सगुण ईश्वर के स्थान पर निर्गुण सत् का मनन ध्यान करता है। कुछ भी हो, भारतीय समाजदर्शन में जैनमत का इतना स्थायी प्रभाव पड़ा है कि श्रमण या संत ही यहाँ सर्वश्रेष्ठ मानव माना जाता रहा है। जो लोग सोचते हैं कि भारतीय समाज दर्शन में सर्वोच्च स्थान ब्राह्मण समाज व्यवस्था को नहीं जानते हैं; उन्हें भ्रमण परम्परा या संत परम्परा का कोई ज्ञान नहीं है । ब्राह्मण से भी श्रेष्ठ या महान् श्रमण या संत है । यह श्रमण-व्यवस्था या संतव्यवस्था वर्णव्यवस्था के साथ जुड़ी हुई है और वर्णव्यवस्था को मर्यादा के अन्दर रखने में कारगर सिद्ध हुई है । श्रमणों या संतों ने इसी कारण जाति-व्यवस्था या वर्ण-व्यवस्था का खण्डन भी किया है। किन्तु इस खण्डन का तात्पर्य यह नहीं है कि वर्णव्यवस्था निराधार है। इसका तात्पर्य है कि वर्ण व्यवस्था के साथ श्रमण-व्यवस्था का चलना आवश्यक है जिससे सर्वोच्च पद तक सभी मनुष्यों की पहुँच संभव हो सके धन या पद से कोई महान नहीं । बनता है । केवल चरित्र से ही लोग महान् बनते हैं । इस प्रकार जो महान् हो जाय वही प्रदर्श मानव, संत या श्रमण है। श्रमण-व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था एक-दूसरे की पूरक हैं। यही नहीं, एक के बिना दूसरो जीवित नहीं रह सकती। इसीलिए दोनों व्यवस्थाओं में अविनाभावसंबन्ध है ।
उपसंहार में कहा जा सकता है कि संपूर्ण विश्व में जैन समाज दर्शन इहलोकवाद (सेक्यूलरिज्म) का प्रथम दर्शन है। जब कभी बृहत्तर मानव समाज इहलोकवाद को स्वीकार करेगा तब उसका प्रारूप वही होगा जिसकी संकल्पना जैनदार्शनिकों ने की है । क्योंकि इसमें लौकिक और आध्यात्मिक मूल्यों का परस्पर पूर्व पूरक नाव स्वीकारा गया है। इस समाजदर्शन को लोकायतवाद से भिन्न करने के लिए लोकायनवाद कहा जा सकता है क्योंकि इसका भी प्रयोजन इस लोक और इसके निवासी का सर्वकल्याण करना है और लोक की गति का संरक्षण करना है। इसलिए लोकायत नहीं किन्तु लोकायन लोक का स्वरूप है।
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-अध्यक्ष
दर्शन विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय
इलाहाबाद
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