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चतुर्थ खण्ड / ६६
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अपनार्चन
वर्तमान युग में शीलपालन प्रश्न बन गया है । पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव जो बढ़ गया है और भारतीय संस्कृति का अवमूल्यन होता जा रहा है । तथापि माता-पिता, बुजुर्ग, गुरु, समाज-संस्कर्ता सेवक जरा सतर्कता से काम लेवें, व्यवहार, आचार और संस्कार का परिष्कार करें तो शीलरत्न की ज्योति अखण्डित-प्रज्वलित रहेगी। वह किसी भी भय, प्रलोभनों के झंझावातों से बुझेगी नहीं । शील के संस्कार घर-घर में मुखर होंगे । धरा पर स्वर्ग साकार होगा। 'दोहापाहुड' का 'शीलं मोक्खस्स सोवाणं' आर्ष वाक्य प्रशस्त होगा। प्राचार्य हेमचन्द्र शील-लाभ को उजागर करते हए कहते हैं
चिरायुषः सुसंस्थाना दृढसंहनना नराः ।
तेजस्विनो महावीर्या भवेयुब्रह्मचर्यतः ॥ अर्थात् ब्रह्मचर्य पालन करने से मनुष्य दीर्धायु, तेजस्वी और महापराक्रमशाली होते हैं, उनके शरीर का डीलडौल एवं उनके शरीर के अवयव परस्पर गठे हुए और मजबूत होते हैं। ब्रह्मचर्य राख से प्रच्छन्न आग है। जिसके भीतर ज्योति है लेकिन ऊपर राख । यही तथ्य हिन्दी के फक्कड़ कवि कबीर के स्वर में भी भास्वर हया । यथा
"बाहर से तो कछ न दीखे, भीतर जल रही जोत ।"
'शील' की प्रभावना से व्यक्ति शक्तिधर श्रुतिधर, और स्मृतिधर बन सकता है। सदाचरण के अर्घ्य से, शील की अर्चना से व्यक्ति का ही नहीं, समाज का, समाज का ही नहीं प्रान्त, राष्ट्र और विश्व का अभ्युदय सम्भव है। वस्तुत: 'शील' जोवन का मुकुटमणि है। वह जीबन की सुन्दर उपासना है।
-मंगलकलश ३९४, सर्वोदयनगर, आगरारोड,
अलीगढ़-२०२००१ (उ.प्र.)
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