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कर्म : स्वरूप प्रस्तुति | १७
निष्पक्ष विवरण है। और सुनिये वह बंध (प्रकृति बंध, स्थिति बंध, अनुभाग बंध और रस बंध) इस तरह चार पर्यायों में परिणत होता है। चारों बंधों का संक्षिप्त स्पष्टीकरण
प्रकृति-बंध-स्वभाव की भिन्नता, जैसे-एक-एक मेरी प्रकृति ज्ञान गुण को ढकने वाली है। कोई दर्शन गुण को तो कोई सुख-दुःख को....।
स्थिति-बंध-जिस आत्मा के साथ मेरी प्रकृतियों का सम्बन्ध जुड़ता है वह सम्बन्ध अमुक काल मर्यादानुसार रहता है, उस को स्थिति बन्ध कहकर विद्वानों ने पुकारा है।
अनुभाग-बंध-इसे रस-बंध भी कहते हैं। मेरी कर्म प्रकृतियों का विपाक (फल) जीवात्मा को कभी मंद रूप में तो कभी तीव्र रूप में प्रास्वादन करना ही पड़ता है।
प्रदेश-बंध-मेरे परमाणु-दलिकों के न्यूनाधिक रूप को प्रदेशबंध की संज्ञा दी गई है। जिनके मानस मिथ्या मान्यताओं के शिकार हैं वे मानते हैं कि
"ईश्वर-कृपा से जीवात्मा को सुख किं वा दुःख की प्राप्ति होती है। देहधारी कुछ भी कर नहीं सकता। जगत् में जो कुछ हो रहा है वह ईश्वर की प्रेरणा से ही हो रहा है। सभी का कर्ता-हर्ता-धर्ता ईश्वर है। ईश्वर की इच्छा के बिना संसार का पत्ता भी नहीं हिलता है। कोई जीव नरक में तो कोई स्वर्ग में गया, कोई चोर तो कोई साहकार बना, कोई राजा तो कोई रंक, कोई हीन तो कोई उच्च । यह सब उस अनन्त शक्तिमान ईश्वर की देन है। पामर प्राणी क्या कर सकता है ?"
ये सब कपोलकल्पित भ्रान्तियां हैं। ईश्वर न किसी को दुःख देते हैं और न किसी को सुख। थोड़ी देर के लिए मान भी लिया जाय कि ईश्वर सुख दुःख का कर्ता है तो वह ईश्वर भी मेरे (कर्म के) ही आधीन रहा न ? स्वतन्त्र कहाँ ? अब जरा मेरे तर्क भी सुन लो
यदि सृष्टि का निर्माण ईश्वर ने किया तो उसने कहां बैठकर किया? जमीन या नभ में ? क्योंकि उनकी मान्यतानुसार पहले कुछ भी नहीं था। यह जगत् असंख्य योजन के विस्तार वाला है। इसमें अनन्तानन्त बेजान वस्तुएँ हैं । इसी प्रकार अनन्तानन्त जीवराशि भी विद्यमान हैं । यदि इन सबको ईश्वर ने बनाया है तो उसे कितना समय लगा होगा? कितने साधन जुटाने पड़े होंगे? पहले कुछ भी नहीं था तो वे साधन कहाँ से प्राप्त किये होंगे? प्रथम चरण में उसने आत्मा का निर्माण किया था या अनात्मा (जड पुद्गलों) का?
विषमता-विचित्रता भरे संसार को प्राप प्रत्यक्ष देख रहे हैं, कोई चीज आकार में छोटी है तो कोई बड़े आकार वाली। कोई मनोज्ञ तो कोई अमनोज्ञ, कोई इष्ट तो कोई अनिष्ट, कोई प्रिय तो कोई अप्रिय, कोई सुगन्धमय तो कोई दुर्गन्धमय, कोई शुभ तो कोई अशुभ, कोई कठोर तो कोई कोमल गुणवाली, कोई सुस्वादिष्ट तो कोई विषवत् । इसी प्रकार आकाशपाताल का अन्तर पैदा करने की उस ईश्वर को क्यों आवश्यकता पड़ी? इस दृश्य से समत्व-योग का अभाव लगता है ईश्वर में ।
प्रत्यक्षतः प्रतीत होता है कि-सष्टि में रहे हए सभी संसारी जीव-जन्तु एक समान स्थिति वाले नहीं है। कोई दु:खी है तो कोई सुखी, कोई श्रीपति बने फिरते हैं तो कोई रंकत्व भोगते हैं। कोई बीमारी से ग्रस्त है तो कोई बिल्कुल हृष्ट-पुष्ट स्वस्थ हैं। कोई हीन कुल में जन्मा है तो कोई उच्च कुल में। कोई पंडित बना है तो कोई मूर्ख ही रह गया ।
धम्मो दीटो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है
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