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. अर्थ ना च न .
तृतीय खण्ड
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देखकर मूनि धर्मरुचि ने विचार किया-'एक वृंद से ही जब अनेक चींटियाँ मर गई तो सम्पूर्ण शाक से तो असंख्य चींटियाँ अथवा मक्खियाँ आदि मर जाएंगी। इससे तो अच्छा यही है कि मैं ही इसे उदरस्थ कर लं ।'
यह विचार करके मुनि धर्मरुचि ने वह सारा शाक स्वयं खा लिया और अन्य जीवों के प्राण बचाकर स्वयं निष्प्राण हो गए। 'यात्मवत् सर्वभूतेषु' की भावना जीवन में श्रमण धर्मरुचि ने उतारकर एक ज्वलंत आदर्श स्थापित किया।
इतना ही नहीं, यह भावना मनुष्य अथवा पशु-पक्षियों तक ही सीमित नहीं है, अपितु पेड़-पौधों तक की रक्षा करने की प्रेरणा देती है। महाराष्ट्र के प्रसिद्ध संत नामदेव जब छोटे थे तब एक दिन उनकी माता ने कहा
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"नामू ! मुझे काढ़ा बनाना है अतः जाकर पलाश के पेड़ की थोड़ी सी छाल ले आ।"
बालक नामदेव चल दिया और खोज-खाजकर पलाश के समीप जा पहुँचा। उसने माता की आज्ञा का पालन किया किन्तु यह विचार कर कि पेड़ को कितनी वेदना हई होगी, स्वयं अपने पैर पर कुल्हाड़ी से खरोंच लगा ली। वेदना का अनुभव करने पर उसने भविष्य में कभी ऐसा न करने का निश्चय किया और लौट पाया।
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उसकी मां ने जब उसके कपड़ों पर खून लगने का कारण जाना तो समझ गई कि मेरे पुत्र ने पेड़-पौधों में रहने वाली संवेदना-शक्ति को भी जब आत्मवत् समझ लिया है तो बड़ा होने पर यह महान् संत अवश्य बनेगा। हुआ भी ऐसा ही, वे बड़े होकर भगवान् के भक्त एवं इतिहास-प्रसिद्ध संत बने । हमारा धर्म पुकार पुकार कर कहता है:
सव्वे पाणा, सव्वे भूया, सव्वे जीवा, सब्वे सत्ता, न हंतव्वा, न अज्जावेयव्वा न परिघेत्तव्वा, न परियावेयव्वा न उदवेयन्वा । तुमंसि नाम तं चेव जं हंतव्वं ति मनसि । तुमंसि नाम तं चेव जं अज्जावेयव्वं ति मनसि । तुमंसि नाम तं चेव जं परियावेयव्वं ति मनसि।
-प्राचारांगसूत्र
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