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दीर्घजीवन या दिव्यजीवन
छटपटा रही थी, बिना किसी अन्य विचार के, ठीक उसी प्रकार जिस समय तुम्हारी आत्मा बिना और कुछ सोचे, केवल भगवान के दर्शन के लिये एकाग्रतापूर्वक छटपटाएगी तथा मन मात्र उन्हीं में केन्द्रित हो जाएगा और संसार की ओर रंचमात्र भी ध्यान नहीं जाएगा, तब तुम्हें भगवान के दर्शन हो जाएंगे। इसके लिये समय की आवश्यकता नहीं है केवल मन के संकल्प-विकल्प छोड़कर भगवत्प्राप्ति की ओर व्यग्रतापूर्वक मन को केन्द्रित कर लेने की अावश्यकता है।" 'आराधनासार' ग्रन्थ में कहा गया है
निग्गहिए मणपसरे, अप्पा परमप्पा हवइ । अर्थात-मन के विकल्पों को रोकते ही आत्मा परमात्मा बन जाता है।
वस्तुतः संत ने भी अपने शिष्य को कुछ समय पानी में डुबाए रखकर यह बात समझा दी कि जीवन के थोड़े से समय में भी इसका सम्पूर्ण लाभ लिया जा सकता है बजाय इसके कि लम्बे समय तक जीने के लिये अधिक फ़िक्र की जाय और बचे हुए समय में भगवान की भक्ति करके मनुष्य यह समझ ले कि मैं अपना कर्तव्य ठीक निभा रहा हूँ।
आज हम इसी विषय पर विचार करने जा रहे हैं कि मनुष्य को अधिक जीने की चिन्ता करनी चाहिये या अच्छा जीने की। आप और हम सभी जानते हैं कि संसार में यात्रा करने के तीन मार्ग हैं-स्थल, जल एवं आकाश। ठीक इसी तरह जीवन-यात्रा के भी तीन मार्ग हैं-पहला जड़वाद, दूसरा बुद्धिवाद और तीसरा आत्मवाद। इन्हें ही प्राधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक रूप से जाना जाता है। इन तीनों के विषय में जानना प्रत्येक मनुष्य के लिये अनिवार्य है, अन्यथा वह सही मार्ग पर नहीं चल सकेगा। (१) आधिभौतिक अथवा जड़वाद
जड़वाद के अनुसार चलनेवालों का जीवन पृथ्वी पर रेंगकर चलने वाले जन्तुनों से अधिक महत्त्व नहीं रखता। जिस प्रकार कीड़े-मकोड़े जब तक जीते हैं, यत्र तत्र निरर्थक और निरुद्देश्य चलते-फिरते रहते हैं, अपने खाद्य-पदार्थ खोजकर पेट भरते हैं और कभी भी समाप्त हो जाते हैं। इसी प्रकार जड़वादी अपनी शरीर-क्षमता से दौलत इकट्ठी करता है और उसके द्वारा शरीर-सुख के साधनों को जुटाकर अपने परिवार सहित उनका उपभोग अधिक से अधिक करने का प्रयत्न, जीवन भर करता रहता है। इन्द्रियों को सुख देने में ही वह सुख मानता है पर वह नहीं जानता कि ये सुख मृग-मरीचिका के समान हैं। मरुभूमि में मृग बाल रेत के कणों को जल समझकर मारा-मारा फिरता है पर जल प्राप्त नहीं कर पाता, इसी प्रकार जड़वाद पर चलने वालों का भी हाल होता है । वे भौतिक वस्तुओं में सुख समझते हैं, किन्तु
७ॐ..
समाहिकामे समणे तवस्सी " जो श्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी है।"
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