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मानते हैं, जो ज्ञान प्राप्ति भले ही न कर पाए हों, उच्च भावनाओं से रहित हों किन्तु थोड़ी किताबी शिक्षा ग्रहण करके धौर शहरों में रहके सूट-बूट पहनते हों, मुंह में पान या सिग्रेट हर समय रखते हों, फ़ैशनकट बाल होने से नंगे सिर रहते हों और अंग्रेजी भाषा का ज्ञान चाहे अधूरा ही हो पर अपनी भाषा के साथ उसका गलत सलत प्रयोग करके अपने विदेशी शब्द - ज्ञान की विज्ञप्ति देकर अन्य व्यक्तियों पर अपना रौब गांठते हों। ऐसे व्यक्ति सादा जीवन, उच्च-विचार रखने वाले व्यक्तियों को और गाँव के सरल, ईमानदार तथा नीतिमान् ग्रामीणों को बिल्कुल असभ्य मानते हैं। स्वयं की सभ्यता का दम भरने वाले ऐसे व्यक्ति अपने आपको सभ्य सुसंस्कृत कहते हुए ऊपर से टिप-टॉप न रहने वाले कम पढ़े लिखे किन्तु सच्चरित्र लोगों को भी असभ्य कहते हुए तिरस्कृत करते हैं।
उपरोक्त प्रकार के 'सभ्य' व्यक्ति अधिकतर अपनी भौतिक उन्नति में लगे रहते हैं। तथा स्वार्थ सिद्धि के विषय में सोचते हैं । उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि समाज के अनेक और व्यक्तियों की दशा कैसी है? कौन अभावग्रस्त या पीड़ित है तथा उनका कष्ट निवारण किस प्रकार किया जाय ? सभ्य कहलवाने वाले व्यक्ति प्रासानी से छल-कपट चालवाजी, धूर्तता, रिश्वतखोरी तथा दूसरों के पीड़न और शोषण की परवाह न करते हुए अपनी सुख-सुविधाओं के सामान जुटाने में लगे रहते हैं। सभ्यता का आवरण प्रोढ़कर वे अपने कुकृत्यों को और आसानी से इस प्रकार करते हैं कि इनके दोष साधारण व्यक्ति समझ नहीं पाते। ऐसे व्यक्ति अधिकतर पुलिस विभाग में बस-ट्रेन आदि वाहनों में, तथा अदालतों में आसानी से देखे जा सकते हैं। ऊँचे-ऊँचे सरकारी पदाधिकारी भी भ्रष्टाचार के दलदल में आकंठ डूबे रहते हैं जो कि अपने कार्यकाल को जन-कल्याण का अवसर नहीं मानते अपितु धन इकट्ठा करने का स्वर्णिम युग समझते हैं; फिर भी उनकी सभ्यता सर्वमान्य होती है ।
संस्कृति का अपमान
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अफ़सोस होता है कि ऐसी प्रेम, दया, त्याग आदि से सर्वथा हीन बर्बर सभ्यता को भी अनेक विद्वान् संस्कृति का नाम देते हैं, जबकि उनके ग्रन्तःकरण में संस्कारों का नामोनिशान भी नहीं होता । हमें भलीभाँति समझ लेना चाहिये कि मानवोचित श्रेष्ठ भावनात्रों से रहित और स्वार्थ सिद्धि की इच्छाओं से परिपूर्ण सभ्यता को 'संस्कृति कहना उसका अपमान करना है । सभ्यतामात्र बाह्य वस्तु है और संस्कृति भ्राभ्यंतर संस्कृति संस्कारों के समूह को कहते हैं और संस्कार का कार्य ही मन और आत्मा की शुद्धि करना तथा उसे अधिक से अधिक उज्ज्वल बनाना है । संस्कार दोषों को नष्ट करने का कार्य ही करते हैं उन्हें जन्म नहीं देते, दे भी नहीं सकते, अन्यथा वे संस्कार ही क्यों कहलाते संस्कार का अर्थ ही मांजना, मैल को दूर करना और चमक लाना है।
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तृतीय खण्ड
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