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तृतीय खण्ड
ल 48.55 पटलका
भारतीय संस्कृति की जीवन-क्षमता
विश्व की विभिन्न संस्कृतियों का अगर तुलनात्मक अध्ययन किया जाय तो यह निविवाद प्रतीत होगा कि हमारी भारतीय संस्कृति ही आज गर्वसहित साबित कर सकती है कि सहस्रों वर्षों में इसका जीवन अविच्छिन्न रहा है और युगों से यह अपनी विजय-पताका निरंतर फ़हराती चली आ रही है । अनेक संस्कृतियों ने इस पर आक्रमण किये, किन्तु यह अविचल भाव से सबको सहकर भी अपने स्थान पर ज्यों की त्यों बनी रही।
प्राचीन इतिहास के पन्ने पलटने पर जाना जा सकता है कि एक समय मिस्र, बैबीलॉन, यूनान और रोम आदि की सभ्यताएँ अपने चरम उत्कर्ष पर थीं, किन्तु अन्य संस्कृतियों और सभ्यताओं के अाक्रमणों के फलस्वरूप वे सब नष्ट हो गईं अथवा उनका रूप इस प्रकार बदल गया कि उनकी अपनी पहचान ही नहीं रही। आज 'काहिरा' नगर में, एथेन्स के कुट्टिमों में, रोम के विश्वविख्यात ऐप्पियन मार्ग में अथवा यूफेटीज़ नदी के किनारे पर, कहीं भी उन संस्कृतियों के प्रतिनिधि हमें दिखाई नहीं देते । केवल बेजान स्तूप, चैत्य और प्रतिमाएँ अवश्य उनकी स्मृति दिलाती हैं। जीवित व्यक्ति कोई ऐसा नहीं पाया जाता जो अपनी सभ्यता या संस्कृति के विषय में कुछ बता सके ।
पर दूसरी ओर हमारी भारतीय संस्कृति अपने उसी पुरातन और मूल रूप में न केवल जीवित है अपितु निरंतर नवजीवन भी प्राप्त करती चली जा रही है। कोई भी अन्वेषक चाहे हिमालय पर्वत पर चला जाए अथवा विन्ध्याचल को घाटियों में, 'गंगानदी' के कछारों में जाए अथवा 'कावेरी' के तटों पर, उसे भारतवर्ष में सर्वत्र यहाँ की संस्कृति के प्रतीक नर-नारी प्राप्त हो जाएंगे। इसके अलावा भारत में ही क्या, अन्य देशों में भी अपनी महान् संस्कृति की गरिमा से युक्त भारतीय बड़ी संख्या में मिलते हैं और उनके रहन-सहन, व्यवहार, मैत्री-भावना, आध्यात्यिक विचार तथा जीवन के प्रति विशुद्ध दृष्टिकोण के कारण उनकी पहचान सहज ही हो जाती है। जार्ज बर्नार्ड शॉ ने इसीलिये कहा है:--
"भारतीयों की मुखाकृति में जीवन के प्रकृत रूप का दर्शन होता है। हम तो कृत्रिमता का प्रावरण प्रोढ़े हुए हैं; किन्तु भारतीयों के मुखमण्डल की सुकुमार रूप-रेखानों में ही कर्ता के कराङ्ग ष्ठ की स्पष्ट छाप दिखाई देती है।"
'बर्नार्ड शॉ' ने यह प्रशंसा भारत में जन्म लेने वाले मानव-शरीर की नहीं, अपितु भारतीय संस्कृति की की है। यह संस्कृति भारतभूमि के कण-कण में व्याप्त है, भारतीय साहित्य के पद-पद में प्रोत-प्रोत है और भारतीय इतिहास के प्रत्येक पृष्ठ पर अंकित है। प्रसिद्ध चीनी यात्री 'ह-ए-त्सांग' ने भी लिखा है:
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