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सम्पूर्ण संस्कृतियों को सिरमौर-भारतीय संस्कृति
ध्यान में रखने की बात है कि, जहाँ सभ्यता केवल रहन-सहन और भौतिक उन्नति को ही महत्त्व देती है वहाँ संस्कृति इन सबको गौण मानती है तथा प्रात्मोन्नति को ध्येय या लक्ष्य समझती है। दूसरे शब्दों में सभ्यता बाह्य जीवन को सम्पन्न बनाना चाहती है, किन्तु संस्कृति अान्तरिक जीवन को। इसका अर्थ यह नहीं है कि संस्कृति भौतिक आवश्यकताओं की अवहेलना करती है । वह इन्हें जीवन का एकमात्र साध्य नहीं मानती, केवल शरीर और जीवन की अनिवार्य आवश्यकता समझकर उतना ही उपयोग में लेती है । जैसे-सुसंस्कृत व्यक्ति भोजन करता है पर सिर्फ इसलिये कि भोजन शरीर को कायम रखने के लिये या जीवित रहने के लिये आवश्यक है। वह जिह्वा-लोलपता के कारण अथवा अपने वैभव या ऐश्वर्य की विज्ञप्ति के लिये नाना प्रकार के भक्ष्य या अभक्ष्य खाद्य-पदार्थों का ढेर नहीं लगाता।
सुप्रसिद्ध साहित्यकार 'बर्नार्ड शॉ' एक बार किसी उत्सव में निमंत्रित थे। समारोह के पश्चात् भोज का भी आयोजन था। भोज का प्रबन्ध करनेवालों को ज्ञात नहीं था कि वर्नार्ड शॉ शाकाहारी हैं अतः उनके लिये व्यवस्था नहीं की गई थी और भोजन सामिष था।
सभी व्यक्ति खाने बैठे पर 'शॉ' चुपचाप रहे, उन्होंने किसी पदार्थ को हाथ भी नहीं लगाया । खाना खाते हुए लोगों ने जब यह देखा तो कहा:
"आपने तो अभी तक भोजन करना प्रारंभ ही नहीं किया, कृपया शुरू कीजिये !"
बर्नार्ड शॉ ने उत्तर दिया-"भाई! ईश्वर ने मुझे पेट दिया है, इसमें शाक-सब्जी आदि पदार्थों के लिये ही जगह है, मेरा उदर मुर्दो के कलेवर से भरने के लिये कब्रिस्तान नहीं है।"
'शॉ' की बात सुनकर सब स्तब्ध रह गए और उनके मस्तक मारे शर्मिन्दगी से झुक गए । इस स्थिति को देखकर 'बर्नार्ड शॉ' चुपचाप उठकर वहाँ से चल दिये।
बंधुनो ! अभी मैंने बताया है कि सुसंस्कृत व्यक्ति का 'अर्थ' और 'काम' पुरुषार्थ भी धर्म से जुड़ा रहता है और सच्चा धर्म कभी प्राणियों का हनन कर उनका भक्षण करने की प्रेरणा नहीं देता। इसी प्रकार संस्कारी व्यक्ति भोजन के समान ही वस्त्रों का उपयोग भी लज्जा-निवारण अथवा शीत आदि से बचने की भावना से करता है। अपनी अमीरी का प्रदर्शन करने और मान-प्रतिष्ठा पाने की दृष्टि से नहीं । सचाई भी यही है कि नित्य नवीन और बहुमूल्य वस्त्र पहनने से ही व्यक्ति महान् और यशस्वी नहीं बन जाता, उसके लिये प्रात्म-गुणों की आवश्यता होती है।
महात्मा गाँधी जब 'गोल मेज़ परिषद्' में भाग लेने इंगलैण्ड गए तो अपनी उसी छोटी सी ऊँची धोती और शरीर पर चादर लपेटे हुए ही चल दिये। उसी वेश में सम्राट और वायसराय से मिले और परिषद् में भाग लिया । क्या वे सूट-बूट प्रादि बाह्य सभ्यता के
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समाहिकामे समणे तवस्सी ओ श्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी है।"
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