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तूफ़ानों से टक्कर लेने वाला आस्था का दीपक
आत्मार्थी बंधुप्रो !
आज हमें आस्था पर कुछ विचार करना है । आस्था अथवा विश्वास का छोटा सा भी दीपक अगर एक बार अन्तर्मन या आत्मा में प्रज्वलित हो जाए तो वह मानव को क्रमशः भक्ति, साधना तथा उपासना के मार्गों पर चलाता हुआ मुक्ति-रूपी मंजिल की ओर अग्रसर करता चला जाता है। सम्यक् आस्था का दीप कैसी भी विघ्न वाधाएँ क्यों न आएँ, तुफ़ानों के कितने भी दौर क्यों न गुजर जाएँ, कभी बुझता नहीं बल्कि वह आत्म-शक्ति को प्रखर और तेजस्वी बनाता है। आस्था का दीप ही एक ऐसा दीपक होता है जो प्रज्ञान के प्रावरण को भेदकर अपनी सम्यक् ज्योति से धर्म के मार्ग को प्रकाशित करता है ताकि मोक्षाभिलाषी व्यक्ति उस पर चलकर अपनी इच्छित मंजिल तक पहुँच सके।
किस धर्म मार्ग पर आस्था दीप प्रज्वलित रहे ?
वास्तव में यह एक बड़ी भारी समस्या है कि मनुष्य अपनी दृढ़ प्रास्था अथवा श्रद्धा किस धर्म पर रखे ? प्राज के समय में तो धर्म के नाम से अनेक धर्म-भ्रम चल रहे हैं। अधिकतर विवेकहीन व्यक्ति बाह्य क्रियाकांडों को बाह्याचारों को साम्प्रदायिक परम्पराओं को, जातिगत रीति-रिवाजों को अथवा कुरूड़ियों को धर्म का माकर्षक बाना पहनाकर भोली एवं सम्यक्ज्ञान से रहित जनता के समक्ष अपनी दृढ़ प्रास्था अथवा धर्म-परायणता का प्रदर्शन करते हुए उसे गुमराह करते हैं। ऐसी स्थिति में आस्था का भव्य दीप गलत मार्ग पर रख लिया जाता है और उन्मार्ग पर चलकर मानव की उत्कृष्ट मंजिल प्राप्ति की तमन्ना अनंतकाल तक भी पूरी नहीं हो पाती जन्म-जन्मान्तर तक उसे जन्म-मरण के दुःख उठाने पड़ते हैं।
जिस प्रकार किसी भी रोगी के लिये सर्वप्रथम तो यह आवश्यक है कि वह निष्णात चिकित्सक से यह जानकारी हासिल करे कि उसे क्या बीमारी है ? तत्पश्चात् चिकित्सक के द्वारा बताई हुई औषधियों का प्रयोग भी सही करे अन्यथा मालिश करने वाली दवा पेट में डाल ले और पेट में डाली जाने वाली से मालिश करने लग जाय तो मृत्यु के सिवाय उसे और कौन सी मंजिल मिलेगी ? स्पष्ट है कि दवा का उपयोग तो उसने पूर्ण विश्वास और प्रास्था के साथ किया, किन्तु सही ज्ञान के अभाव में प्रयोग उलट-पुलट हो गया। अतः स्वस्थ होने के बदले वह अधिक रुग्ण होकर मृत्यु का ग्रास बना ।
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