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तृतीय खण्ड
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___'गहिओ सुग्गइमग्गो, नाहं मरणस्स बोहेमि' अर्थात्-मैंने सद्गति का मार्ग या सच्चा धर्म-मार्ग अपना लिया है । अब मैं मृत्यु से भी नहीं डरता। इक सरवर सू गागर भर ले !
उपर्युक्त पंक्ति राजस्थानी भाषा के कवि 'कृष्ण गोपाल' की एक सुन्दर कविता की है। आज हम देखते हैं कि अधिकतर लोग कभी मंदिर में जाकर आस्था सहित पूजा करते हैं, कभी स्थानक में प्राकर दो-चार दिन भगवान महावीर की वाणी सुनते हैं, कभी शिवजी को जल चढ़ाते हैं और कभी बजरंगबली हनुमान जी से प्रार्थना करते हैं। इसी प्रकार विभिन्न देवीदेवताओं के यहां जाकर अपनी आस्था का प्रदर्शन करते हैं। इतना ही नहीं, लोग पाखंडी साधु-महात्माओं के चमत्कारों की अफवाहें सुनकर भी इधर-उधर दौड़ते रहते हैं। कवि ने इन तमाशों को देखकर आत्मा को उद्बोधन देते हुए चेतावनी भरे शब्दों में कहा है:
मालण ! फूल फूल रो मोल करणो चोखो कोनी ए। कंवली! कली कली रो तोल करणो चोखो कोनी ए।
गली गली बैठचा सौदागर, जितरा मंदिर उतरी झालर, घाट-घाट पे मत जावे तू,
नाड़ी नाड़ी पाणी पालर । जोगण ! देव देव रो ध्यान धरणो चोखो कोनी ए।
सगला चादर में सो बाला, सारी आगल आगे ताला। मन रा पापी तन रा तापी,
हाथ उठावे भगवत माला। भोली ! जणां जणां री पोल चढणो चोखो कोनी ए। कवि ने बड़ी मधुर भाषा में अपनी आत्मा को सत्य के प्रति आगाह किया है कि ग्राज धर्म का मर्म समझे बिना ही विभिन्न प्रकार के कलेवर प्रोढ़े स्वयं को धर्म के ठेकेदार कहने वाले और भोले मानव को अपनी भेंट-पूजा के हिसाब से स्वर्ग और मोक्ष का टिकिट प्रदान करने की घोषणा करने वाले साधु, योगी, महन्त और मठाधीश बने हुए गली-गली में सौदागर बने बैठे हैं। किन्तु वे सब हाथों में माला लिये हुए भी मन और इन्द्रियों की तृप्ति की भूख लिये आडंबर द्वारा प्रज्ञानियों को ठगने की फिराक में रहते हैं। बाह्य क्रियाओं के अलावा आध्यात्मिक अथवा पात्मिक धन रूपी धर्म के नाम पर उनके पास शून्य है। वे मिथ्या ज्ञान,
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