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संत और पंथ
कवि ने संत को जल को उपमा दी है। कहा है-ताल, पोखर आदि का जल एक ही स्थान पर भरा रहता है, अतः शीघ्र गंदला हो जाता है, किन्तु नदी का जल सदा बहता रहने के कारण स्वच्छ बना रहता है । हम देखते भी हैं कि तालाब आदि के घाटों पर पर्वादि के अवसरों पर तो अनेकों लोगों के स्नान एवं वस्त्रादि साफ करने से जल इतना दूषित हो जाता है कि अनेक प्रकार की बीमारियाँ फैलकर जनता को मौत के मुंह में पहुंचा देती हैं, किन्तु नदियों का जल स्थान-स्थान पर एकदम स्वच्छ मिलता है।
संत के लिये भी कवि ने कहा है कि वह विचरण करता रहे। यह नहीं कि एक नगर में डेरा डालकर उसे अपना स्थायी निवासस्थान बना ले । संत को अनिवार्य स्थिति के अतिरिक्त सदा विचरण करते रहना चाहिये । इससे दो लाभ होते हैं । यथा(१) राग-द्वेष एवं प्रासक्ति से बचाव ।
अगर संत एक ही नगर अथवा ग्राम में रहता है तो कुछ व्यक्तियों से अधिक परिचय और उसके पश्चात् उनके प्रति मोह या राग होना अवश्यंभावी है और जिनके प्रति उसका राग होता है उनके विरोधियों से द्वेष भी। वह स्वयं भी अपनी भक्ति करने वालों से प्रसन्न रहता है तथा औरों के प्रति उदासीनता अथवा तिरस्कार की भावना रखता है। गिरिधर कवि के कथानानुसार राग एवं द्वेष, ऐसे प्रेत होते हैं जो संत के हृदय में पैठकर उसकी निर्मलता को नष्ट करते हुए कषाय-रूपी पापों से दागदार एवं बंधनयुक्त कर देते हैं। साथ ही एक स्थान पर सदा बने रहने से परिग्रह बढ़ जाता है और उसके प्रति आसक्ति । ऐसी स्थिति में संत की आत्म-शक्ति साधना की प्रखरता को प्राप्त नहीं कर पाती । उलटे वह मंद होती हुई निकृष्टता की ओर अग्रसर होने लगती है।
आत्म-शक्ति में तो इतनी प्रखरता होती है कि वह अपनी आत्मा के द्वारा ही अपनी प्रात्मा का विकाररहित अनन्त शुद्ध स्वरूप का ध्यान तथा चिन्तन-मनन करके उसे विभाव अवस्था से स्वभाव अवस्था में ला सकती है। ऐसी आत्म-शक्ति का धारक सदा यह चिन्तन करता है
निरामयो, निराभासो निर्विकल्पोऽहमानतः ।
निविकारो निराकारो निरवद्योऽहमव्ययः ।। अर्थात-मैं कषायादि रोगों से रहित हैं, मिथ्यात्व आदि भ्रम से परे हैं तथा रागद्वेष जनित सभी प्रकार के विकारों से रिक्त है। शरीर इन्द्रिय आदि भौतिक पदार्थों से भिन्न होने के कारण मैं पूर्णतया निराकार हैं, सर्वथा निष्पाप हैं और अनादि-अनन्त-रूप होने से अक्षय तथा शाश्वत भी हूँ।
समाहिकामे समणे तवस्सी " जो भ्रमण समाधि की कामना करता है. वही तपस्वी है।
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