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• अर्चना च न .
तृतीय खण्ड
प्राप्ति कराकर सदा-सर्वदा के लिये प्रात्मा को जन्म-मरण से मुक्त कराता है। हमारी पुण्यभूमि भारत ने रत्न-गर्भा बनकर ऐसी दिव्यात्मानों को जन्म दिया है, जिन्होंने विनाश के अतल गर्त की ओर ढकेलने वाले अज्ञान के गाढ़े अन्धकार को भेदकर ज्ञान का प्रशस्त पालोकपथ जन-जन को बताने का प्रयत्न किया है तथा स्वयं उस पथ पर चलकर महान् आदर्श उपस्थित कर दिखाया है।
इसी पावन भूमि पर आज से लगभग अढ़ाई हजार वर्ष पूर्व एक ऐसी महान् एवं दिव्यात्मा ने जन्म लिया था जिसे आज हम भगवान महावीर के नाम से स्मरण करते हैं। उनकी जय-विजय का नाद गुंजाते हैं तथा उनके उपदेशों को आत्मसात् करने का प्रयत्न भी करते हैं। वैसे इस पुण्यभूमि पर महान् साधु-सन्त, ऋषि-मुनि, योगी और फ़कीरों का आविर्भाव होता रहा है, किन्तु महावीर जैसे महापुरुष कदाचित् क्वचित् ही होते हैं। वे जब होते हैं तो सम्पूर्ण विश्व की ऊर्ध्वमुखी चेतना विकसित होने लगती है तथा जन-जन का मस्तक श्रद्धा एवं अपूर्व कृतज्ञता से भरकर उस महान् आत्मा के चरणों पर झुक जाता है ।
___ उस दिव्य पुरुष की वाणी का एक-एक शब्द हमारे धर्मग्रन्थों के माध्यम से ऐसा रहस्य-सूत्र देता है जिसे जानकर और अमल में लाकर मानव विकास के चरम शिखर पर आरूढ़ हो सकता है तथा सृष्टि की समस्त सिद्धियाँ उसके चरणों पर न्यौछावर होकर उसे असीम शक्ति प्रदान करने में समर्थ हो जाती हैं। आवश्यकता केवल इस बात की है कि अपनी शक्तियों को पहचान कर सम्यक् ज्ञान युक्त एक-एक कदम बढाता हुआ वह आत्म-सिद्धि के अंतिम सोपान पर पहुँचे । दीप-शिखा
महान आत्माओं को ही ऐसी सिद्धि प्राप्त होती है और अंत में सदा वे के लिये विश्व के सम्मुख एक अद्भुत और स्थायी आलोक-स्तंभ बनकर पथ-भ्रष्ट लोगों का सदा मार्ग-दर्शन करते हैं। भगवान महावीर के जीवन में उक्त कथन अक्षरशः चरितार्थ हुअा था। राजकुल में जन्म लेकर भी सम्पूर्ण राज्य-वैभव को तृणवत् त्यागकर स्व एवं पर के अभ्युदय हेतु उन्होंने साधना-पथ के भयंकर उपसर्गों, परीषहों और अनेकानेक विघ्नबाधाओं को पार करके आत्ममुक्ति के अपने उद्देश्य को प्राप्त किया। उनकी संकल्प-शक्ति, त्याग और तप को देखकर समग्र विश्व चकित रह गया। तत्पश्चात् साधना एवं प्राचरण की भव्य उत्कृष्टता तथा पूर्ण निर्मलता लेकर जब वे पुनः जन-जन के समक्ष प्रकट हुए तो प्रत्येक व्यक्ति हर्ष-विभोर होकर उनके मुखारविन्द से अमृत-बिन्दु के समान झरते हुए एक-एक शब्द को अन्तर्मानस में अंकित करने लगा। महावीर ने अहिंसा रूपी ऐसी अमोघशक्ति परम धर्म के रूप में मशाल के सदृश मानव के हाथ में थमा दी, जिसके प्रकाश में वह चाहे तो चित्त को विशुद्धि की चरम सीमा पर ले जा सकता है।
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