________________
अर्चनार्चन
मन-शुद्धि और उसके माध्यम से मानव के उदात्तीकरण का अभिप्रेरणीय सन्देश प्रदान करते हैं।
जीवन को उद्गाभिमुख करने वाले इन बाह्य अवलम्बों के साथ महासती उमराव कंवरजी ने प्रात्मकल्याण एवं स्वरूपानुसंधान के निमित्त भारतीय संस्कृति एवं दर्शन द्वारा प्रतिपादित विभिन्न अंतर्यात्राओं यथा साधना, योग, ज्ञान, भक्ति, अनेकांत, त्रिरत्न, तपस्या, सम्यक्त्व प्रादि का सरल किन्तु सारयुक्त, मनोहारी किन्तु गम्भीर, शास्त्रसम्मत किन्तु भानुभविक, अध्यात्म-प्रेरित किन्तु व्यावहारिक विवेचन प्रस्तुत कर मानव-अभ्युदय का मार्ग प्रशस्त किया है।
इस तत्त्व-ज्ञान का विरोध उन नास्तिक विचारधाराओं द्वारा किया जाता रहा है जो भौतिक सिद्धान्तों, स्थल मानसिक प्रक्रियाओं तथा लौकिक-परिवर्तनों द्वारा मानव-कल्याण के स्थायी आधार को खोज पाने का सपना संजोये बैठे थे। आज उनकी आत्म-सिद्ध विफलताएँ उन्हें इस तत्त्व-चितन को अपनाने को बाध्य कर रही हैं। सिवाय इसके कि मात्र लौकिक एवं इन्द्रिय-सुख के लिए समर्पित जन के हास-परिहास के लिए इनमें कुछ नहीं है, किन्तु उन्हें उद्गामिमुख करने तथा जीवन जीने के अधोगामी धरातल से उनका उद्धार करने के लिए इनमें सब कुछ है।
महासती श्री उमरावकुंवरजी की मानवता के प्रति समर्पित महती साध्वी-साधना को शतशः विनीत प्रणाम ।
--समर्पण ३४, केशवनगर, हरिफाटक, उज्जैन. म. प्र.
समाहिकामे समणे तवस्सी * जो भ्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org