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वस्तुतः आत्मिक ज्ञान - दीप के प्रभाव में यानी निजज्ञान के बिना की हुई क्रियाएँ खोखली रह जाती हैं। जो मान्याताएँ निजज्ञान के विरुद्ध होती हैं वे साधक को अशुद्धता की ओर ले जाती हैं और जो मान्यताएं निज ज्ञान के अनुरूप होती हैं वे चित्त को शुद्धता की ओर अग्रसर करती हैं । अभिप्राय यही है कि निजज्ञान की ज्योति ही शुद्धता का दर्शन कराती है और वही भावशुद्धि एवं कर्मशुद्धि का हेतु बन सकती हैं ।
भावशुद्धि किस प्रकार हो ?
प्रश्न उठता है कि मानव की प्रवृत्तियाँ किस प्रकार की हों जो उसके चित्त को निर्मल या शुद्ध बनाने में सक्षम हो सकें? इसके उत्तर में कुछ बातों का ध्यान रखना प्रत्येक मानव या मुमुक्षु के लिये आवश्यक है।
(१) आत्मवत् सर्वभूतेषु
अपने समान ही संसार के समस्त प्राणियों को समझना सर्वात्मभाव कहलाता है अर्थात् प्राणी मात्र पर अपने समान प्रीति हो मानव शरीर के समस्त अवयवों की आकृति तथा कार्य में प्रन्तर होता है, किन्तु मनुष्य की आत्मीयता और प्रीति प्रत्येक अवयव के प्रति समान होती है । इसी प्रकार अमीर, गरीब, धर्मात्मा, पापात्मा अथवा दीन-हीन और
तृतीय खण्ड
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अपाहिज कैसा भी प्राणी क्यों न हो, मनुष्य को प्राणीमात्र के प्रति समान प्रीति होनी चाहिये । पशु-पक्षी और प्रत्येक जीव-जन्तुयों के प्रति भी दया और प्रेम होना आवश्यक है। सच्चे साधक या फकीर समग्र संसार में एकमात्र परमात्मा को देखते हैं उन्हें दूसरा कोई नज़र ही नहीं आता। एक उदाहरण से इसकी सत्यता जाहिर होती है
एक पहुँचा हुआ साधु सदा जंगल में ज्ञानोन्मत्त अवस्था में रहा करता था। कभीकभी वह गांव में आ जाता और लोग उसे जो कुछ दे देते, उसे पूर्ण अनासक्त भाव से खाकर चल देता । न वह कुछ माँगता और न ही किसी से व्यर्थ बातचीत ही करता ।
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एक दिन वह घूमता चामता गांव में धावा तो किसी गृहस्थ ने उसे कुछ खाना दे दिया फकीर वहीं बैठकर खाने लगा। इसी समय एक कुत्ता वहाँ प्रा गया और फ़कीर के पास बैठकर पूँछ हिलाने लगा। यह देखकर फ़कीर अपने साथ कुत्ते को भी खिलाने लगा । अनेक व्यक्ति एकत्रित हो गए और साधु को पागल कहकर हँसने लगे ।
लोगों को हँसते देख महात्मा ने बड़े प्राश्चर्य से उन लोगों से पूछा - "तुम सब हँस
क्यों रहे हो ?"
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" इसलिये हँस रहे हैं महाराज ! कि आप कुत्ते के साथ खाना खा रहे हैं।"
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