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भाव-शुद्धि-विहीन शुभ-कर्म खोखले
"वह क्या ?" "उस कुए पर मेरे पिताजी का नाम खुदवाया जाय ।" विनोबा जी ने उसी वक्त इन्कार करते हए स्पष्ट जवाब दे दिया
"नहीं सेठजी! मैं आपके पिता को नरक में भेजने का पाप नहीं करूंगा।" सेठ चुपचाप मुंह लटकाकर लौट गया।
गर्व, अहंकार तथा प्रतिष्ठा आदि की कामना आत्मा को कितना नीचे गिराती है, इस विषय में "नारदपरिव्राजकोपनिषद्' में कहा गया है:
अभिमानं सुरापानं, गौरवं घोर रौरवम् ।
प्रतिष्ठा शूकरी विष्ठा, त्रीणि त्यक्त्वा सुखी भवेत् ॥ अर्थात् अभिमान मदिरापान के सदृश है तथा गौरव की कामना आत्मा को भयानक रौरव नरक में पहुँचाती है। इनके अलावा प्रतिष्ठा की चाह को तो सूकर की विष्टा के समान निकृष्ट माना गया है। अत: मानव को इन तीनों दोषों को त्यागकर सुखी बनना चाहिये और सुखी बनने के लिये आवश्यक है कि दानादि शुभक्रियाएँ निष्काम और निःस्वार्थ भाव से की जायें। अन्यथा भावशुद्धि के अभाव में कर्मशुद्धि कभी नहीं हो सकती। ढिंढोरा पीटकर की गई शुभक्रियाएँ कभी शुभ फल प्रदान नहीं करतीं। एक दोहे में यही बात बड़े सुन्दर ढंग से बताई है
करणी ऐसी कीजिये, जिसे न जाने कोय ।
जैसे मेंहदी पात में बैठी रंग लुकोय ॥ इस सरल भाषा में कहे गए दोहे में कितने गूढ रहस्य की बात कही गई है। दान इस प्रकार गुप्त रूप से दिया जाय कि दाहिने हाथ से देने पर बायें हाथ को भी उसका पता न चले। मेंहदी की पत्तियों में कितना सुन्दर लाल रंग छिपा रहता है, किन्तु कोई उन्हें देखकर जान नहीं पाता। इसी प्रकार दान भी अभावग्रस्त व्यक्तियों को इस प्रकार दिया जाना चाहिये कि लेने वालों को भी पता न चले कि किसने दिया है।
प्रत्येक मुमुक्ष को यह जान लेना आवश्यक है कि दान ही धर्म रूपी जीवन का प्रथम सोपान है। इसीलिये तीर्थंकर संयम ग्रहण करने से पूर्व एक वर्ष तक प्रतिदिन दान देते हैं। अथर्ववेद में कहा है:
-सैकड़ों हाथों से इकट्ठा करो और हजारों हाथों से बाँटो।
वस्तुत: दान इहलोक तथा परलोक, दोनों में ही उत्तम फल प्रदान करता है। किन्तु ऐसा तभी होगा जब वह किसी भी प्रकार की कामना से रहित रहकर निःस्वार्थ और पूर्ण 9. समाहिकामे समणे तवस्सी।
- जो श्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी है।"
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