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अर्चना-प्रवचन भाव-शुद्धि-विहीन शुभ-कर्म खोखले सम्पादन : कमला जैन 'जीजी', एम. ए.
[१] प्रात्मबंधुप्रो !
चिरकाल से हम पढ़ते, सुनते और देखते चले जा रहे हैं कि मानव प्रत्येक क्षेत्र में प्रगति करना चाहता है । वह चाहता है कि इस संसार में वह प्रतिष्ठा और प्रशंसा प्राप्त करे तथा भविष्य में जन्म-मरण से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त कर ले, किन्तु ऐसा होना सरल नहीं है; बड़ी टेढ़ी खीर है। अपनी इच्छापूर्ति के लिए वह सेवा, दान, भक्ति और साधना करता हा भी देखा जाता है किन्तु उसके शुभ-कर्म यथार्थ फल देते हैं या निष्फल और निरर्थक हैं ? उसका विवेकयुक्त मन ही यह जान सकता है। कर्मशुद्धि की कसौटी भावशुद्धि
जीवन में कर्मशुद्धि से पहले भावशुद्धि अनिवार्य है । भावशुद्धि के बिना कर्मशुद्धि सच्ची नहीं होती और कर्मशुद्धि के अभाव में सच्चरित्रता नहीं आ सकती । स्पष्ट है कि सच्चरित्रता के बिना न इहलोक सुधर सकता है और न ही परलोक । भावशुद्धि सही अर्थों में कर्मशुद्धि की जन्मदात्री है । भावशुद्धि का मतलब है चित्त की निर्मलता । चित्तवृत्ति के निर्दोष और निर्मल होने पर ही मनुष्य को अपने जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य 'मुक्ति' की प्राप्ति हो सकती है । कहा भी है:
ण इमं चित्त समादाय, भुज्जो लोयंसि जायइ। -दशाश्रुतस्कंध निर्मल चित्तवाला साधक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता।
अनेक व्यक्ति तर्क करते हैं कि मनुष्य में दोष तो विद्यमान ही हैं, फिर वह दोषमुक्त कैसे हो सकता है ? इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि ऐसा तो कोई भी नहीं होता जो सर्वथा बुरा हो और सर्वदा दोषयुक्त कर्म ही करता हो। दुष्ट-कर्मों की प्रवृत्ति से पूर्व सभी निर्दोष होते हैं तथा दोषों की निवृत्ति के बाद भी निर्दोष हो सकते हैं। किन्तु मुख्य बात तो यह है कि दोष-कर्म करते समय व्यक्ति अपने उन कर्मों को पाप-कर्म नहीं समझता। मानता भी नहीं। पर जब उनके फलभोग का समय आता है, स्वयं को दोषी मानकर पश्चात्ताप करता है। अगर वह पहले ही विवेक और ज्ञान के प्रकाश में अवलोकन करे तो वास्तविकता को सहज ही जान सकता है। यदि पुनः पुनः दोषों की प्रावृत्ति न की जाय तो
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