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तृतीय खण्ड
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अपने एक प्रवचन में महासतीजी ने नास्तिकता को छोड़कर प्रास्तिक बनने और इस माध्यम से नश्वर शरीर से भिन्न, आत्मा के अजरत्व, अमरत्व एवं अनश्वरत्व पर पूर्ण आस्था रखने का सन्देश दिया। अपने एक प्रवचन में उन्होंने प्रश्न उठाया, "साधक कैसा हो?" और स्वयं ही उत्तर देते हुए निष्कर्ष निकाला कि सच्चा साधक श्रेय-मार्ग का पथिक, तथा अात्मस्वरूप की प्राप्ति की उच्चाभिलाषा से युक्त होकर साध्य-प्राप्ति तक अनवरत प्रयास करने वाला होता है। एक अन्य प्रवचन, यह मर्म प्रकट करता है कि मुमुक्षु साधक की साधना में सद्गुरु, सत्साहित्य तथा उसका अपना शरीर सहायक होते हैं। अत: सद्गुरु के प्रति समर्पण, स्वाध्याय एवं सुस्वास्थ्य एक साधक के लिये अपरिहार्य हैं। साधक से जुड़े दो तत्त्व, साधना एवं साध्य होते हैं । सच्ची साधना के लिये साधक में दृढ संकल्प, अध्यवसाय, कर्मफलाशा का त्याग, आस्था एवं दृढ़ विश्वास होना चाहिए। साधक का प्रत्येक कार्य निष्काम होना चाहिए । उसका लक्ष्य समस्त विषय-विकारों का त्याग करते हुए अध्यात्म की चरमावस्था पाने का होना चाहिए । यह साध्य ही स्थायी एवं स्थिर होगा।
अपने अन्य प्रवचनों में महासतीजी ने जीवनदर्शन के विविध आयामों पर गहराई से प्रकाश डाला है। उन्होंने अत्यंत विस्तारपूर्वक बतलाया कि मानवता की सच्ची कसोटी कर्तव्यपालन है। इससे आत्मा में साहस एवं शक्ति की वृद्धि होती है। सद्गुरु, सद्विद्या, स्वविवेक एवं सच्चरित्रता की प्रेरणा एवं सम्बल के पाथेय द्वारा दायित्वपूर्ण रूप से अपने कर्तव्य-पथ को पार करना चाहिए । शुभ कर्त्तव्य ही स्वर्ग के द्वार का अदृश्य कब्जा है। मानव का कर्तव्य है कि वह परिवार, समाज, राष्ट्र एवं मानव जाति के प्रति अपने कर्तव्यबोध से सतत जागरूक रहे । एक अन्य प्रवचन में सहानुभूति की महत्ता पर विशद प्रकाश डालते हुए अर्चनाजी ने स्पष्ट किया है कि जिसके हृदय में करुणा एवं दया का अजस्र स्रोत बहता है, वह सच्चा साधु है और साधुवाद का पात्र है, और रहेगा।
जैन धर्म में स्याद्वाद का स्थान प्रतिपादित करते हुए यह कहा गया है कि अनेकान्तवाद जैन-दर्शन की आधारशिला है। यद्यपि अनेकान्तवाद और स्याद्वाद एक ही सिद्धान्त के दो पहल हैं किन्तु अनेकान्तवाद वस्तु-दर्शन की विचारपद्धति है और स्याद्वाद उसकी भाषापद्धति । अनेकान्त दृष्टि को भाषा में उतारना ही स्याद्वाद है, वैसे दोनों शब्दों को साधारणत: एक दूसरे का पर्याय मान लिया जाता है।
इस ग्रन्थ में संग्रहीत अपने अन्य प्रवचनों में महासती उमरावकवरजी ने धर्म के प्रति समर्पित रहने के लिये नयी पीढ़ी का आह्वान किया है। उन्होंने मन को आत्मविश्वास से युक्त रखने तथा सशिक्षा ग्रहण हेतु सदैव तत्पर रहने की प्रेरणा दी है । धर्म की विशद एवं तात्त्विक व्याख्या करते हुए उन्होंने धर्मान्धता को अभिशाप माना है। धर्म को उन्होंने अमृत
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