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अर्चनार्चन
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आत्मा की गति स्वभावतः ही ऊर्ध्वगामी है ।
स्याद्वाद के भव्य स्तम्भ पर जैन-दर्शन का महल खड़ा है ।
सम्यक् दर्शन, ज्ञान और चारित्र ही मोक्षरूपी तरु की छाया के समान हैं ।
सम्यक्त्व के पाँच लक्षण हैं- सम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा एवं आस्था | धर्म का मूल सम्यक्त्व है ।
मिथ्यात्व श्रद्धा को नष्ट कर देता है ।
श्रद्धा में असीम शक्ति होती है ।
सत्य के मार्ग को दुष्कर्मी पार नहीं कर सकते
सम्यक्त्व, साधना का मूल आधार । इससे सम्पन्न व्यक्ति ही यथार्थद्रष्टा बनता है और उसमें सत्य की ज्योति जाग जाती है ।
१०. भगवान् महावीर के मुख्य सिद्धान्त तीन हैं—अहिंसा, अनेकान्त एवं अपरिग्रह | ११. अहिंसा का पालन करने वाले भव्य जीव ही आत्मा को निष्कलंक रख सकते हैं । १२. स्याद्वाद अनुभवसिद्ध, स्वाभाविक एवं परिपूर्ण सिद्धान्त है ।
१३. जातिमद निराधार है। कुलमद भी कम भयंकर नहीं । ज्ञान का मद भी बड़ों-बड़ों को सताता है । ऐश्वर्य मद-ग्रस्तों की खुशामद मत करो.... इस आठ-फने मद सर्प को छोड़ दीजिए और जीवन को नम्रता और सौजन्य के पथ पर ले जाइये ।
१४. मोह मनुष्य को अंधा बना देता है ।
१५. जड़ के प्रति मोह को तोड़े बिना चैतन्य के १६. सच्ची भक्ति भगवान् को अपने वश में कर
लेती है । वे भक्त का कुल, जाति, धन, पूजापाठ या अन्य क्रियाओं का अम्बार नहीं देखते । देखते हैं केवल प्रेम और हृदय की निष्कपटता ।
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१७. मनुष्य को आत्मनिरीक्षण, आत्मशोधन एवं श्रात्मविकास में अपने पुरुषार्थं को लगाना चाहिए ।
१८. अंतरंग क्षेत्र उपेक्षित रहेगा तो बहिरंग क्षेत्र में सच्चे सुख और स्थायी शान्ति की झलक भी नसीब नहीं होगी ।
मोह का त्याग भ्रम है ।
१९. संतों की महत्ता, उनके मानस की विशालता एवं ज्ञान की गूढता का कोई पार नहीं
पा सकता ।
२०. मनुष्य द्वारा पापों का किया जाना उतना बुरा नहीं है जितना बुरा है उनके लिये
पश्चात्ताप न करना ।
समाहिकामे समणे तवस्सी
जो भ्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी है
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