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अर्चनार्चन
रक्षाबंधन पर्व, मुक्ति-दिवस, ज्ञान तथा कला का महत्त्व, समय व साधनों के सदुपयोग, प्रसन्नता की महिमा तथा मानव-जीवन की दार्शनिक पृष्ठभूमि पर अत्यंत रोचक, बुद्धि-ग्राह्य एवं प्रेरणीय प्रकाश डाला है।
अर्चना और आलोक : महासती उमरावकुंवरजी 'सिद्धान्ताचार्य' के इक्कीस प्रवचनों का यह संग्रह श्रीमती कमला जैन 'जीजी' के सम्पादन में नवम्बर, सन् १९७० ई. में श्री वर्धमान श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन श्रावक संघ, विजयनगर (अजमेर) द्वारा प्रकाशित किया गया । ये प्रवचन अध्यात्म एवं नीति प्रेरक होने के साथ-साथ जीवनस्पर्शी भी हैं । संकलित सभी प्रवचन अनेक मौलिक उद्भावनाओं एवं अनुभूतियों का प्राकट्य करते हैं। प्रथम प्रवचन 'अन्तर्दृष्टि की दीर्घता' से सम्बन्धित है। इसमें कहा गया है कि आत्मा में सद्गुणों की स्थापना करना ही अनन्त सुख प्राप्त करने का प्रयत्न करना है । इस कारण मनुष्य को अपनी दृष्टि प्रेय पदार्थों तक ही सीमित न रखकर उसे विवेकपूर्ण रूप से श्रेय-युक्त एवं दूरदर्शी बनाना चाहिए । 'बन्धन के दो रूप' नामक प्रवचन कैदियों के प्रति किया गया एक मार्मिक सम्बोधन है । महासती का निष्कर्ष है कि मनुष्य का पाप या अपराध उसका स्वभाव न होकर उसकी रुग्णता है। उसे दूर करने के लिये घृणा को नहीं अपितु स्नेह की औषधि चाहिए। उन्होंने बन्दियों से अपील की कि कारावास के कष्टों की परवाह न करते हुए अपनी आत्मा को निर्दोष बनावें तथा अपनी शक्ति को पहिचान कर उसे सही दिशा में लगावें । सैनिकों के प्रति महासती का सम्बोधन देश में सजग प्रहरी के रूप में लेखबद्ध किया गया है। देश के बहादुर सैनिकों को महासती का सन्देश है :
"अगर आप अन्याय के विरुद्ध लड़ रहे हैं, अत्याचारी को दण्ड दे रहे हैं, तो भले ही आप युद्धभूमि में क्यों न हों, धर्म का पालन कर रहे हैं। .............."मुझे विश्वास है कि जिस प्रकार प्राप देश के शत्रुओं से देश की रक्षा करेंगे, उसी प्रकार प्रात्मा के शत्रुओं से अपनी आत्मा की भी रक्षा करते हुए मनुष्य-जन्म को सार्थक करेंगे।" 'मति और गति' नामक प्रवचन का सार यह है कि जीवन में कठिनाइयों या विघ्नों से घबराकर रुक जाना या उलझन में फंसे रहकर समय नष्ट करना, पुरुषार्थी का धर्म नहीं है। मार्ग में रुकने का अर्थ है-लक्ष्यभ्रष्ट हो जाना।
योग-साधना का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए महासतीजी ने कहा है कि साधना का मूल केन्द्र प्रात्मा है, अतः योग के चिन्तन का मुख्य विषय भी वही है । प्रवचन में उन्होंने महर्षि पतंजलि प्रणीत अष्टांग योग की व्याख्या की तथा कहा कि योग एक ऐसा विज्ञान है जो प्रात्मा के दोषों और दुर्बलताओं को दूर करके उसे परिपूर्णता, मुक्ति तथा प्रात्म-साक्षात्कार की ओर ले जाता है।
e.. जो भ्रमण समाधि
समाहिकामे समणे तवस्सी
र तपस्वी है।
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