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दिशाबोध / १६५
२८ नवम्बर १९८६ को मैं महासतीजी की सेवा में बैठा हुआ था। तत्त्वचर्चा करते हुए मेरी आँखें दो मिनट के लिए बन्द हुईं और अन्तःअनुभूति हुई कि पिसी हुई मिश्री और शक्कर बिछा दो, उस पर म. सा. के चरण रखवाकर उपयोग करो। मैंने ऐसा ही किया तो मन में असीम शान्ति का संचार हुआ। महासतीजी की अनुकम्पा और तपस्या का यह प्रतिफल हुआ कि मुझे प्रायः अन्तःकरण से ऐसे अनूठे संकेत मिलते रहते हैं जो मुझे असीम सुख प्रदान करते हुए दूसरों का दु:ख बाँटने की प्रेरणा देते रहते हैं।
मेरा विश्वास है जीवन में जिसे पथप्रदर्शक के रूप में महासतीजी श्री उमरावकुंवरजी 'अर्चना' म० सा० मिले हों उसका कल्याण असंदिग्ध है।
धर्म का सम्बल हो तो पहाड़ जितना दुःख भी तिनके जितना रह जाता है.
दिशाबोध गोविन्दराम सिंधी, दौराई (अजमेर)
मेरा जीवन परिस्थितियों के अन्धड़ में किसी सूखे पत्ते की तरह भटक रहा था, तभी महासती श्री उमरावकुंवरजी 'अर्चना' म० सा० से मेरा परिचय हुआ और मुझे एक नयी दिशा मिली । मैं बहुत छोटा था तब मेरे माता-पिता मुझे रोताबिलखता छोड़कर चले गये। भाइयों ने भी मुझे सदा दुत्कारा । मैं मन ही मन हमेशा घटता रहता। महासतीजी के दर्शन हए तो उन्होंने असीम स्नेह से मुझे आशीर्वाद देते हुए मेरी व्यथा-गाथा सुनी । जब भी कोई मुझ पर हाथ उठाता है तो मैं म० सा० को याद कर लेता हूँ और उठे हुए हाथ उठे ही रह जाते हैं। आपके प्रभाव से हमारे परिवार ने मांस-मदिरा का परित्याग कर दिया है और सभी सुख शान्ति से रहते हैं । मेरे हृदय की कामना है ऐसी कृपा हमेशा बनी रहे।
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