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महासतीजी को अपनी पूर्व जन्म की बहिन मानने वाले भाई के उद्गार
कैसे जाना मैंने कुवर हरिसिंह (जोगी), सखवास
यद्यपि म० सा० श्री उमरावकुंवरजी बाई सा० के मुझे प्रत्यक्ष दर्शन का लाभ १९८६ में मिला, किन्तु सन् १९८४ में महावीर जयन्ती की रात्रि में अचानक सूक्ष्मदर्शन हो गये थे। स्वप्न में ही आत्मा परमात्मा सम्बन्धी बहुत चर्चा हुई। उस दिन से मैंने भोजन करना बन्द कर दिया। करीब डेढ साल तक पानी में थोडा सा दूध मिलाकर पीता रहा। मेरे शरीर में विचित्र अनुभूतियाँ होती रहती थीं और दिन-रात मैं अपनी ही धुन में मस्त रहता था। जब हाथ में कलम लेकर बैठता तो लिखता ही चला जाता । मुझे ऐसा लगता था मेरे दाहिने बाजू के पास पीठ की तरफ बाईसा श्री अर्चना जी मुस्कराते हुए खड़े हैं। ____ कुल मिलाकर मैंने १२०० के लगभग भजन लिखे हैं । लिखने के बाद मुझे कुछ भी याद नहीं रहता । घर वाले बहुत परेशान थे। गांव में अनेक प्रकार की चर्चायें चल रही थीं। आखिर मुझसे रहा नहीं गया । जो कुछ मेरे जीवन में घटित हो रहा था वह अपनी बड़ी बहिन गागुड़ा ठुकरानी जो श्री पदमश्रीजी बाई सा से कहा। उन्होंने अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा, वह तो मेरे गुरुणी म० सा० हैं।
हम दोनों भाई-बहिन जानकी नगर इन्दौर म. सा. श्री की सेवा में पहुंचे। उस समय मैं एकान्तर की तपस्या कर रहा था । करीब डेढ़ महीने सेवा में रहा । मेरे जीवन को अनेक शंकाओं का समाधान मिला और परमानन्द की अनुभूति हुई, जो न मैं शब्दों से व्यक्त कर सकता हूँ और न ही लिखित रूप में।
जब भी मेरी इच्छा होतो है मैं १५-२० दिन के लिए 'म० सा० श्री की सेवा में पहुँच जाता हूँ। अब मेरा लिखना बोलना प्रायः समाप्त हो गया है, अधिक समय मेरा ध्यान में ही निकलता है । यह सारा श्रेय पूज्य बाई सा श्री अर्चना जी म. सा. को जाता है।
मुझे अनेक दृश्य तो दिखाई देते हैं लेकिन पूर्वजन्म व अगले जन्म का आभास भी मिल जाता है । इन आभासों में से एक यह भी है कि मैं और बाईसा इस जन्म से पूर्व भाई-बहिन थे । हमारी साधना अपूर्ण रह गई थी इसलिए जन्म लेना पड़ा।
मैं अब अधिक क्या लिखं, जीवन के अनुभव शब्दों में व्यक्त नहीं किये जा सकते । सिर्फ सिन्धु में बिन्दु जितना ही मैं इस ग्रन्थ के लिए लिख सका हूँ। - मैं म. सा. के लिये कौनसी कामना करूं समझ में नहीं आता। बस इतनी ही प्रार्थना है कि वह जन्म-मरण के दुःख से छुटकारा पावें और मोक्षगति प्राप्त करें।
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