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द्वितीय खण्ड | १८२ है। किशनगढ़ में दस वर्ष तक जनसमाज में भारी संघर्ष रहा। उसे सुलझाने के लिये जैनाचार्यों ने और मुनिराजों ने बहुत प्रयास किये किन्तु वह और अधिक उलझता ही गया। अन्त में पूज्य महासती श्री उमरावकुंवरजी 'अर्चना' को आग्रह करके किशनगढ़ लाया गया और पाँच-सात दिनों में ही सारी उलझन सुलझ गई । कोर्ट-केस भी समाप्त हो गया। यह मेरी श्रद्धा का निमित्त बना।
अन्त में मैंने और गांव के मुस्लिम भाईयों ने सत्याग्रह करके (जैन-संघ तो प्रमुख था ही) किशनगढ़ चातुर्मास करवा ही लिया । वह समय हमारे लिए अपूर्व आनन्ददायक रहा । तब से अब तक मैं समय-समय पर दर्शन का लाभ लेता रहता हूँ। ईश्वर से प्रार्थना है कि हमें अापका मार्गदर्शन सदैव मिलता रहे।
'योगीड़ो तो छोटो भाई, सेवक चरणा राखो रे.' योगी महासतीजी को बड़ी बहन मानते हैं और उनके दिव्यदर्शन सदैव अपने हृदय में ही कर लेते हैं.
ज्ञान रो दीवलो
0 कुवर हरिसिंह योगी टेरः-अमर लोक सू आया बाईसा, उमरावकुवरजी नाम ।
चहुं दिश पापाचार फैलियो, दुखिया करी पुकार । क्यूं शरीर धारण करिया
बाईसा करुणा री मूरत, धरियो आप शरीर रे। आप शरीर धारण कर ने पधारिया जद कांई हुयो
दुखियां की ज्वाला बुझी रे, अरु हर्षियो संत समाज ।
कोई एक हरिजन आविया रे, जे साहिब अवतार । कांई काम पधारिया
हंसा लेयने आया बाईसा, संग हंसा ही जावे रे । नाम अमोलक मोती देवे, मोतिया रो चुगो चुगावे रे ॥३॥ खण्ड ब्रह्माण्ड रो भेद बतावे, जे कोई शरणां प्रावे रे। मीठो बोली बोले बाईसा, ज्यू मिसरी की डलियाँ रे ॥४॥ पंखापंखी ने तोड़े बाईसा, मार्ग आगम रो बतावे रे। भांत भांत सू जीवां ने बोधे, समता पाठ पढ़ावे रे ॥५॥ हास मुस्कान होठां पर खेले, क्रोध न नेडो आवे रे। दर्शन करियां दुख मिट जावे, आनन्द हुवे अपारो रे ॥६॥ आप बाईसा अन्तर्यामी, घट घट री सब जाणो रे । योगीड़ो तो छोटो भाई, सेवक चरणां राखो रे ॥७॥
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