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'अर्चना' को अर्चना / २०१
मुझे बोलना नहीं प्राता । बोलती है मेरी क़लम । मैं बोलता इसलिये नहीं कि मुझे अपने भाषण पर विश्वास नहीं। मुझे विश्वास है कर्म पर । कर्म ही मेरा धर्म है । धर्म कहते हैं कर्त्तव्य को, कर्त्तव्य ही जीवन है । सच्चा सुन्दर जीवन वही है जो कर्तव्य पर अडिग रहे । कर्त्तव्य वही है जो धर्म को निभाए। धर्म से परिवार, परिवार से समाज, समाज से राष्ट्रोत्थान होता है। राष्ट्रोत्थान से सम्मान मिलता है और सम्मान ही अमरता प्रदान करता है ।
फिर मैंने वर्तमान ज्वलन्त परिवेश से प्रभावित एक गीत प्रस्तुत किया । कार्यक्रम के समापन पर अर्चनाजी ने रामचन्द्रजी श्रीमाल को मेरी ओर संकेत करते हुए निर्देश दिया - इन्हें ऊपर ले आइये ।
उपस्थित जैन-बन्धुनों से सम्भाषण के पश्चात् मैं अर्चनाजी के विश्रामकक्ष में गया। प्रथम बार मैंने उन्हें मन की आँखों से निहारा- प्रायु लगभग ७२ वर्ष, रंग कुसुमित, रूप आकर्षक । मैं अचम्भित था, इस प्रायु में भी प्रौढ़ता के सम्पूर्ण चिह्न लक्षित नहीं थे । सम्भवत: यह संयमित जीवन का सुपरिणाम है ।
पहली बार हम दोनों की दृष्टि टकराई। उनके मुखमण्डल से प्रस्फुटित तेज को में सहन न कर पाया। मेरी आँखें चौंधिया गईं। बरबस ही मेरी पलकों ने मेरी आँखों को छुपा लिया । केवल इतना ही याद रहा कि मुझे देखते ही उनके होठों पर मृदु मुस्कान नृत्य करने लगी थी और उनका मुख कमल की भांति मुखरित हो उठा था । जैसे एक वियोगिनी माता एक लम्बे अन्तराल के पश्चात् अपने बिछुड़े पुत्र को देख कर खिल उठती है । साक्षात् वीणावादिनी, हंसवाहिनी, पदमवासिनी के दिव्यदर्शन करके मैं धन्य हो गया । प्रथम बार के सान्निध्य से ही मुझे ऐसी अनुभूति हुई कि हम दोनों जन्म-जन्म से परस्पर चिर परिचित हैं । जैसे हर जनम में जननी और तनुज का रक्तिम नाता रहा हो ।
"महाराज ! यह ब्रिगेडियर परिवार के ही हैं और मैं तो मानता हूँ कि यह आधुनिक रसखान । ऐसे तो मैं पहले ही इनका परिचय दे चुका हूँ ।"
श्रीमालजी ने उनसे कहा और मैं लाज से पानी-पानी हो गया । मेरी आँखें विश्रामकक्ष के पक्के फर्श में धंस गईं।
बातचीत के दौरान श्रात्मीयता बढ़ती गई। उन्होंने मुझे "अग्नि-पथ" नामक एक उपन्यास सस्नेह प्रदान किया और मैं उन्हें अभिवन्दन कर वहाँ से उठ आया । चार सौ पृष्ठ का वह उपन्यास मैंने अर्धनिशा तक की अवधि में पढ़ डाला | कमला जीजी लिखित कहने को उपन्यास है किन्तु वह तो अर्चनाजी के अतीत के जीवन का चमत्कारी - महत्त्वकारी अग्नि पथ है । केवल समाचार पत्रों में ही उनके प्रवचनों का सारांश पढ़ता रहा था, परन्तु यह तो मुझे अग्नि पथ के चिन्तन-मनन- अध्ययन से ही ज्ञात हुआ कि अर्चनाजी हिन्दी, उर्दू, संस्कृत, गुजराती, पंजाबी, राजस्थानी और
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