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द्वितीय खण्ड / ११० स्फोट में आता है, जो जीवन को असाधारण वैशिष्ट्य से समायुक्त कर देता है । पिता श्री मांगीलालजी, जो तब मुनि श्री मांगीलालजी थे, सर्वतोभावेन प्राणपण से अध्यात्म-साधना में जुट गये । योगी के जीवन में सहजरूप में जो विभूतियाँ प्राकट्य पा लेती हैं, उनमें भी कुछ वैसी निष्पत्तियाँ हुईं । तभी तो यह संभव हो सका उन्होंने छः महीने पर्व ही अपने मरण का समय बता दिया था. जो ठीक उसी रूप में घटित हुग्रा।
ऐसे महान् पिता की पुत्री और महान् गुरु की शिष्या महासतीजी ने प्रव्रज्या ग्रहण कर लेने के बाद जहाँ एक ओर अपने को श्रुतोपासना में लगाया, दूसरी ओर योग-साधना का वरेण्य क्रम भी उनके जीवन में चलता रहा । अनेक ज्ञानियों, साधको तथा महापुरुषों का सान्निध्य प्राप्त करने, उनसे सीखने, समझने का उन्हें सौभाग्य रहा, जिसका उन्होंने तन्मयता तथा लगन के साथ उपयोग किया, जो उनके वैदुष्य और साधना-प्रवण जीवन में साक्षात् परिदृश्यमान है।
महासतीजी एक जैन श्रमणी हैं, पाद-विहार, धर्म-प्रसार जिनके जीवन का अपरिहार्य भाग होता है । उन्होंने राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली, पंजाब, उत्तरप्रदेश, हिमाचल प्रदेश आदि क्षेत्रों की पद-यात्राएँ की, जन-जन को भगवान महावीर के दिव्य सन्देश से अनुप्राणित किया, आज भी कर रही हैं। उनकी दृढ़ता, साहस, उत्साह तथा निर्भीकता निःसन्देह स्तुत्य हैं, उन्होंने काश्मीर जैसे दुर्गम प्रदेश की भी यात्रा की, जो वास्तव में उनकी ऐतिहासिक यात्रा थी। शताब्दियों में संभवतः यह प्रथम अवसर था, जब एक जैनसाध्वी ने काश्मीर-श्रीनगर तक की पद-यात्रा की हो । महासतीजी द्वारा अपने जीवन के संस्मरणों के रूप में लिखित "हिम और आतप" नामक पुस्तक मैंने देखी । पुस्तक इतनी रोचक लगी कि मैंने एक ही बैठक में उसे आद्योपान्त पढ़ डाला। पुस्तक में उनकी काश्मीर-यात्रा के घटनाक्रम, संस्मरण भी उनकी लेखिनी द्वारा शब्दबद्ध हुए हैं, जो निःसन्देह बहुत ही प्रेरणाप्रद हैं । दुर्गम, विषम, संकड़े पहाड़ी मार्ग, तन्निकटवर्ती काल सा मुंह बाये सैकड़ों फुट गहरे खड्ड', नुकीली चट्टानें, उफनती नदियाँ, पिघलते ग्लेशियर, ( glacier ) छनते बादल-अपरिसीम, अद्भुत प्राकृतिक सुषमा पर साथ ही साथ एक पदयात्री के लिए भीषण, विकराल, संकट परम्परा-महासतीजी ने यह सब देखा, अनुभूत किया । जहाँ प्राकृतिक सौंदर्य ने उनके साहित्यिक हृदय को सात्त्विक भावों का दिव्य पाथेय दिया, वहाँ संकटापन्न, प्राणघातक परिस्थितियों ने उनके राजस्थानीवीर-नारी-सुलभ शौर्य को और अधिक प्रज्वलित तथा उद्दीप्त किया। किसी भी भयावह स्थिति में उनका धीरज विचलित नहीं हुआ। जिन्होंने गृही जीवन में शेरों तक को पछाड़ डाला तथा संन्यस्त जीवन में उसी अनुपात में प्रात्मशक्ति की विराट-ज्योति स्वायत्त की, ऐसे महान् पिता की महान् पुत्री को भय कहाँ से होता ? उन्होंने सानन्द, सोत्साह सोल्लास अपनी काश्मीर-यात्रा संपन्न की। वह प्रदेश, जो वर्तमान में भगवान महावीर के आध्यात्मिक सन्देश के परिचय में कम पा पाया था, उन्हीं भगवान् महावीर के पद-चिह्नों पर चलने वाली उन्हीं की परमो
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