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द्वितीय खण्ड / १६०
को ही ढूँढत आ गया हूँ" इतना कह कर वे आकाश मार्ग से उड़ चले । मैंने श्राश्चर्य से ऊपर की ओर देखा तो लगा जैसे असंख्य सूर्यो का प्रकाश हो । क्षण भर में अदृश्य हो गये । यह देखकर मैं घण्टों पश्चाताप में डूबा रहा और रोता रहा । वह कौन शक्ति थी जिन्हें मैं पहचान न सका । हमेशा मैं प्रतीक्षा और प्रार्थना करता रहा लेकिन मुझे कभी दर्शन नहीं हुए। वर्षों बीत गये, पूर्व पुण्यों के उदय से राजस्थानरश्मि प्रवचनशिरोमणि, श्रद्धया गुरुणीजी श्री उमरावकुंवरजी म. सा० "अर्चना " जिनको मैं उमराव बाईसा के नाम से पुकारता हूँ, वे सन् १९७५ में हमारे अजमेर पधारे । उनका परिचय मुझे पुष्कर घाट पर किशनगढ़ स्टेशन मास्टर श्री जालिम बाबू ( सोमदेव पुरोहित) ने विस्तार से बताया। लेकिन मुझे कभी उस अज्ञात शक्ति के दर्शन होने के बाद किसी भी साधु सन्त के पास जाने की जरूरत नहीं पड़ी क्योंकि मुझे उस दिन से अनन्त शान्ति और अनन्त आनन्द का अनुभव होता है । अनेक साधु-संन्यासी एवं साधक मेरा सान्निध्य प्राप्त करते रहते हैं । परन्तु जैसे ही मैंने जालिम बाबू से उमराव बाईसा का नाम सुना, मेरे मन में अन्तर्प्रेरणा जगी और उसी दिन मैं आपकी सेवा में पहुँच गया । वह क्षण मेरे लिये पूर्व था, खुलकर बातचीत हुई । प्रायः में समय-समय पर बिना संकोच के बाईसा की सेवा में पहुँच ही जाता। वर्षों बाद पुनः मुझे रात्रि में उसी शक्ति के उसी रूप में दर्शन हुए। मेरे पूछने पर कहा, “तुम सही स्थान पर पहुँच गये हो । इससे बढ़कर के और क्या चाहिये” यह संकेत बाईसा (श्री उमरावकुंवरजी म. सा. ) के लिये था । मैं अवर्णनीय सुख का और आनन्द का अनुभव आज भी कर रहा हूँ। एक बार मुझे बाईसा म० सा० के साथ पूर्वजन्म के सम्बन्ध का भी श्राभास मिला। जब-जब अवसर मिलता है मैं सान्निध्य प्राप्त कर ही लेता हूँ । उस आत्मसुख के सम्बन्ध में अभिव्यक्ति सम्भव नहीं है । बस इतना ही कि मैं इस आत्मिक सुख से कभी भी वंचित नहीं होऊँ और बाईसा म० सा० की प्राध्यात्मिक साधना प्रगति पर रहे, यही कामना करता हूँ ।
-रूपी जल में जब-जब मनुष्य डूबने लगता है तब गुरुकृपा के सहारे ही किनारे लगता है.
फैले कीर्ति चतुर्दिक्
[ जगदीश शर्मा, खाचरौद
भवसागर के
दुख
हमारे लिए वह दिन अत्यधिक सौभाग्य का था जब अध्यात्मयोगिनी काश्मीरप्रचारिका श्री उमराव कुंवर जी 'अर्चना' ने अपनी शिष्यानों के साथ चातुर्मास हेतु
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