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द्वितीय खण्ड | १६२
महासती जी का उन पर इतना प्रभाव पड़ा कि उन्होंने न केवल इबादत के समय मुखपत्ती का उपभोग करना प्रारम्भ कर दिया, अपितु सदा के लिए मांस-मदिरा का त्याग भी कर दिया। इस प्रकार मेरे श्वसुर काश्मीर में म० सा० के द्वारा होने वाले अनेक उपकारों की चर्चा करते थे। यह घटना आपकी वाणी एवं प्राचरण के अनन्य प्रभाव का प्रमाण है।
उन्माद के कारण अपना मानसिक सन्तुलन खो बैठा था लेकिन म. सा. की साधना और आशीर्वाद के बल पर पुनः स्वास्थ्यलाभ प्राप्त कर लिया.
अनुकम्पा की मूर्ति
- दिनेशकुमार शर्मा, ब्यावर
युवाचार्यप्रवर बहुश्रुत श्री मिश्रीमलजी म. मधुकर के सान्निध्य में चार वर्ष तक टाइपिस्ट का कार्य करने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ था। उनकी छाया में मुझे जो सुख मिलता था, वह अन्यत्र दुर्लभ था। नियति को जैसे यह सुख सहन नहीं हया। यूवाचार्य श्री जी का अचानक हदयगति रुक जाने से २६ नवम्बर १९८३ को स्वर्गवास हो गया। यह प्राघात मैं सहन नहीं कर सका
और मेरे मन मस्तिष्क का संतुलन बिगड़ गया। मैं पागलों की तरह भटकता हुमा महासतीजी श्री उमरावकवरजी 'अर्चना की सेवा में इन्दौर पहुँचा। मैं जैसे अपनी सुधबुध खो बैठा था। जब मेरा मानसिक संतुलन लौटा तो मुझे ज्ञात हुआ कि ऐसा महासतीजी की अनुकम्पा से सम्भव हो सका है। मुझे बताया गया कि गणेशपुरी के स्वामी मुक्तानन्द जी के नाम से आपने बहुत कुछ उगलवाना चाहा। मैं प्रकाश दालमिल में ठहरा हुआ था। अपने ही हाथों मैंने चाकू तथा पत्तियों से अपने शरीर पर अनेक घाव कर लिये, दीवारों से सिर टकरा कर लहूलुहान कर लिया। मेरा व्यवहार अत्यधिक अनर्गल रहा । मेरे कहने पर मद्रास से श्रीमान सायरमल जी एवं श्री जेठमल जी सा० को प्लेन द्रार इन्दौर बुलाया गया । मेरे प्रत्येक व्यवहार और कथन में कोई तारतम्य नहीं था। ऐसा प्रतीत होता है कि मेरे ऊपर कोई ऊपरी प्रभाव था। मैं कभी अर्द्ध रात्रि में उठकर श्मशान भूमि में चला जाता। शरीर पर श्मशान की राख लगाकर नाचने लगता तो कभी कीमती सामान जला देता, कभी अपना ही लह बहाकर अद्रहास करता तो कभी ३-३ ४-४ दिन तक अन्न ग्रहण नहीं करता। कभी अत्यधिक भयाक्रान्त होकर किसी वस्तु का स्पर्श तक भी न करता था। इस अवस्था में महासतीजी श्री अर्चनाजी मुझे निरन्तर स्तोत्र पाठ आदि सुनाते रहे। जैसे
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