________________
महासतीजी श्री उमरावकुवरजी म० सा० / १०७ प्रेरणा का परिणाम मानता हूँ कि उपासकदशांग, औपपातिक तथा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति इन तीन आगमों का संपादन, अनुवाद एवं विवेचन-विश्लेषण मैंने परिसंपन्न किया ।
अस्तु-तब मैं एक साहित्यिक कार्य के सन्दर्भ में उनसे भेंट करने गया । वे नागौर में विराजित थे। उनसे भेंट हुई, अपेक्षित-वांछित चर्चा भी । अगले दिन प्रातः उन्होंने नागौर से प्रस्थान किया। अगला पड़ाव एक छोटे से गांव में था। मैं भी पैदल ही उनके साथ गया। दिन भर मैं उनकी सन्निधि में रहा। अपराह्न में जब युवाचार्यश्री से वापस लौटने की अनुमति लेने लगा तो उन्होंने विशेषरूप से कहा कि नागौर में महासतीजी श्री उमरावकुंवरजी से मिलियेगा। मैं शाम को नागौर लौट आया । नृसिंह सरोवर पर रुका था, रात्रि-प्रवास वहीं किया। महासतीजी से भेंट करने के सम्बन्ध में प्रातः सोच ही रहा था, मैं नहीं जानता, ऐसा क्यों हुआ, पर हुआ~योग वाङमय के अपने अध्ययन के सन्दर्भ में प्राचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र के उस संस्करण की ओर सहसा मेरा ध्यान गया, जिसे मैंने पढ़ा था, जिसके सम्पादन, प्रकाशन आदि में महासतीजी श्रीउमराकुंवरजी म. सा० का सबसे बड़ा योगदान रहा था । महासतीजी के जीवन का अध्यात्म-संपृक्त योग-पक्ष सहसा मेरे अन्तर्नेत्रों से गुजर गया, जिसमें मुझे साधना की दिव्यता दृष्टिगोचर हुई । महासतीजी का मैं पहली बार दर्शन करने नहीं जा रहा था। तब से तीन चार वर्ष पूर्व जब मेड़ता गया था तो अपने स्नेही मित्र श्रीयुक्त जतनराजजी मेहता के साथ पहले पहल दर्शन करने तथा उनसे ज्ञान चर्चा करने का प्रसंग प्राप्त हुआ था। उसके बाद भी सौभाग्यवश कई बार वैसा अवसर मिलता रहा। उन सबका एक समवेत प्रभाव मेरे मानस पर यह था कि जैन योग में पूजनीया महासतीजी की अनन्य अभिरुचि है तथा असाधारण अधिकार भी। मैंने मन ही मन निश्चय किया कि उनकी सेवा में अपनी भावना उपस्थित करू। तदनुसार वहाँ पहुँचा और यह अनुरोध किया है कि यदि उनका मार्गदर्शन तथा संयोजन प्राप्त होता रहे तो प्रकाण्ड विद्वान्, महान् योगी प्राचार्य हरिभद्र के योग-सम्बन्धी चारों ग्रन्थ हिन्दी जगत् की सेवा में प्रस्तुत किये जा सकें । उत्तर में महासतीजी के जो प्रेरक उद्गार मुझे प्राप्त हुए, मैं हर्ष-विभोर हो गया। उनकी स्वीकृति प्राप्त कर मैंने अपने को धन्य माना । एक परमोत्तम संयमशील पवित्रात्मा की सत्प्रेरणा का संबल लेकर मैं अपने स्थान-सरदारशहर लौट आया तथा अपने को सर्वतोभावेन इस कार्य में लगा दिया। इस बीच कार्य उत्तरोत्तर गति पकड़ता गया। उस सन्दर्भ में मार्गदर्शन प्राप्त करने हेतु महासतीजी महाराज की सेवा में उपस्थित होने के अवसर मिलते रहे । ज्यों-ज्यों मैं उनकी आध्यात्मिक सन्निधि में प्राता गया, मुझे उनके व्यक्तित्व की वे असाधारण विशेषताएँ अधिगत होने लगीं, जिन्हें साधारण चर्म. चक्षुओं से देखा नहीं जा सकता।
आचार्य हरिभद्र ने योगदृष्टि समुच्चय में गोत्रयोगी, कुलयोगी, प्रवृत्तचक्रयोगी तथा निष्पन्नयोगी के रूप में योग-साधकों के जो चार भेद किये हैं, परम श्रद्धया महासतीजी की गणना मैं कुलयोगियों में करता हूं। प्राचार्य हरिभद्र के अनुसार कुलयोगी वे होते हैं, जिन्हें जन्म से ही योग के संस्कार प्राप्त होते हैं, जो समय
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
Mr.jainelibrary.org