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श्रमणी-आकाश के उज्ज्वल नक्षत्र गुरुणीजी म. सा० / ९९
मधुरता का गुण पाना, एक बहुत बड़ी उपलब्धि है । आपमें मधुरता उसी तरह विद्यमान है, जिस तरह तिल में तेल, ईख में रस, दही में मक्खन, फूलों में सुगन्ध समाहित होती है । कठोर से कठोर शब्द कहने वाले, उग्र से उग्र स्वभाव वाले को आप अपने माधुर्यपूर्ण शब्दों से शान्त कर देते हैं। "Calm appears when stroms are past, love will have it's hour at last."
राग आपकी इतनी सुरीली एवं मीठो है कि हर कोई आपके श्रीमुख से भजन अथवा गीत सुनकर आकर्षित हो जाता है । जब पाप भजन अथवा गीत फरमाते हैं, तब ऐसा लगता है मानों माँ सरस्वती आपके कंठ में ही विराजमान हो । अापकी कोयल-सी मधुरवाणी को सुनकर मनुष्य ही क्या, पशु-पक्षो भी भावविभोर हो जाते हैं। आपको हर तरह के गीत, लोकगीत, निर्गुणी भजन प्रादि कण्ठस्थ हैं । जो कोई श्रोता अापके श्रीमुख से भजन अथवा गीत एक बार सुन लेता हैं, उसके कर्ण पुन: उस वाणी को सुनने के लिए पिपासु बने रहते हैं। आज भी कई बार गाँवों में रात तक ग्रामीण जनता आपके भजन सुना करती है।
तचन-सिद्धि तो आपमें पर्णतया परिलक्षित होती है। आप जो सहज, सरल एवं निर्मल भाव से कह देते हैं वह अक्सर होता ही है। आपके श्रीमुख से अचानक निकले हुए शब्दों का साकार रूप लेते हुए प्रत्यक्ष रूप से देखा है । एक वर्ष पूर्व की ही बात हैं। हमारा चातुर्मास उज्जैन के महावीर भवन में था । अनेक दर्शनार्थी आये, उनमें एक थे नोखा निवासी श्रीमान् भंवरलालजी सा० चोरडिया । वे अपने परिवार सहित कार में सुबह ९ बजे करीब आये और १२ बजे करीब उन्होंने पुनः रवाना होने के लिए म० सा० श्री से मांगलिक माँगी। म० सा० श्री के मुंह से अचानक निकला कि-श्रावकजी ! आप आज मत जानो, आपका आज, इस समय जाना उचित नहीं है, लेकिन होनहार को नमस्कार है, वे राजस्थान के लिए रवाना हो गये। राजस्थान तो दूर ही रह गया और उनका बीच मार्ग में ही कार एक्सीडेण्ट हो गया । ऐसी दुर्घटना हुई कि परिवार सहित वे वहीं के वहीं समाप्त हो गये । पाठको ! काल के गाल से कोई किसी को नहीं बचा सकता है, लेकिन महापुरुषों की वाणी भी असत्य नहीं जाती है।
कूदन के समान आपका चेहरा सदैव चमकता दमकता रहा है । आप प्रत्येक परिस्थिति में, चाहे वह अनुकल हो या कि प्रतिकल, एक रूप बने रहते हैं। आपके जीवन में ऐसी विकट परिस्थितियों को आपने हँसते, मुस्कराते हुए समभाव से सहन किया जैसे नदी की लहरें विशाल शिलाखण्ड से टकराकर लौट जाती हैं वैसे ही विषम परिस्थितियाँ आपके समक्ष से विवश होकर लौट जाती हैं।
"He who foresees calamities suffers them twice over." --"'Porteus"
वन हो चाहे भवन, सब जगह आप एक समान पाये जाते हैं। यह नहीं कि, शहरों नगरों में तो खुश नजर आते हों और गाँवों अथवा जंगलों में सुस्त । आपके प्रवचन का ही विषय है-"वन में रहो चाहे भवन में, पर मन में रहना सीखो" आप अक्सर फरमाते भी हैं कि ध्यान मौन-साधना जितनी अच्छी जंगल
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