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द्वितीय खण्ड / ८६
के सदृश है । पुनः उनमें जाते रहना अपने ही वमन किए पदार्थ को खाने के समान अति निम्न कोटि का कार्य है । इसलिए मानव को चाहिए कि वह ऐसा प्रयत्न करे, ऐसा जीवन अपनाए, ऐसा पवित्र, धर्मानुमोदित आचरण करे, जिससे उसे बार बार इन परिभुक्तवमित योनियों में न जाना पड़े। वह ऐसी साधना करे, जिससे जन्म एवं मृत्यु के चक्र से सदा के लिए छुटकारा प्राप्त हो सके ।
न
न - "न" वर्ण नहीं का द्योतक है। वह इंगित करता है प्रकार के पापकृत्यों से बचे, दुर्भावना, दुश्चिन्तन व दुष्प्रयत्न से वह हर समय यह चिन्तन करता रहे कि मैं ऐसे कार्य कभी लाख जीवयोनियों में ढकेलने वाले हैं । ऐसे कार्यों से मैं सदा जगत् में जो भी परिय और परित्याज्य है, उसे में अपने जीवन में हूँ ।
कि मनुष्य अठारह अपने को दूर रखे । करू जो चौरासी
अपने को दूर रखूं । कभी भी स्थान
इस संक्षिप्त से विवेचन में जोवन का सारा जाता है । विवेकशील व्यक्ति इसका मर्म समझते हैं और वे इसके अनुरूप जीवन पद्धति स्वीकार करते हैं । वैसे व्यक्तियों का जीवन आत्मकल्याणपरक तो होता ही है, साथ ही ताथ जन-जन के लिए एक वरदान बन जाता है । मुझे उल्लेख करते अपार हर्ष का अनुभव होता है। कि हमारे धर्म-संघ की परम माननीया, प्रखर विदुषी, महान् अध्यात्मयोगिनी महासती श्री उमराव कुंरजी म. सा. 'प्रर्चना' का जीवन इन विशेषताओं से संपूर्णतया परिव्याप्त है । उनके जीवन का क्षण-क्षण राग, द्वेष आदि आत्म-शत्रुओं के विजय तथा आध्यात्मिक प्रानन्द, जो भौतिक पदार्थों से सर्वथा निरपेक्ष है की उपलब्धि के प्रयास में व्यतीत होता रहा है, आज भी हो रहा है ।
जीवन जगत् के लिए या जागतिक पदार्थों के लिए नहीं है वरन् जगत् या जागतिक पदार्थ विवेक के साथ जीवन के सच्चे लक्ष्य की पूर्ति में निमित्त के रूप में यथोचिततया प्रयोजनीय हैं। उदाहरण के लिए हम भोजन के लिए नहीं हैं, भोजन देह चलाने के लिए वांछित है । साधनाकाल में देह एक निमित्त के रूप में अपेक्षित है । तब तक भोजन और उस जैसी अन्य अनिवार्य भौतिक वस्तुएँ अपनी-अपनी उपयोगिता लिए रहती हैं । ऐसा चिन्तन लिये चलने वाला व्यक्ति देह में, खानपान में, स्थान में, व्यक्तियों में आसक्त नहीं होता । जहाँ जीवन में अनासक्तता श्रा जाती है, वहाँ व्यक्ति साधना के सत्पथ पर अनवरत श्रागे बढ़ता जाता है । महासतीजी श्री उमरावकुंवरजी म. के जीवन में यह सत्य सर्वथा विकस्वर है, देदीप्यमान है । सचमुच वे साधना की जीवन्त प्रतिमा हैं। उनके जीवन का हर कार्य अध्यात्म से है । उनकी सन्निधि में आने वाला व्यक्ति अपने को धन्य मानता है ।
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महासतीजी ने जीवन में साधना द्वारा जो उपलब्ध किया, उपलब्ध किए जा रही हैं, वह वस्तुतः श्रद्भुत है । महासती जी म. की यह अपनी विशेषता है वे अपनी उपलब्धियों को केवल अपने तक समेटे रखना नहीं चाहतीं । वे जन-जन में उन्हें विकीर्ण करती जाती हैं । मुमुक्ष, बोधिसत्व की ज्यों उनकी यह अन्तः कामना है कि इस शोक-संकुल जगत् का प्रत्येक प्राणी प्राध्यात्मिक प्रहलाद से प्रापूर्ण हो ।
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