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योग, संयम, साधना, सेवा तथा करुणा की सतत प्रवहणशीला
निर्मल मन्दाकिनी महासती श्री अर्चनाजी
साध्वी उदितप्रभा "उषा"
भारतवर्ष सदा से संस्कृति-प्रधान देश रहा है। यहाँ पर वैदिक, बौद्ध एवं जैन संस्कृति की त्रिधाराएं सतत गतिशील रही हैं । ये तीनों ही अपने अपने स्थान पर महत्त्वपूर्ण हैं।
विश्व की अन्याय संस्कृतियों में जैन संस्कृति का एक विशिष्ट एवं गौरवपूर्ण स्थान ही नहीं, अपितु भारत की महिमा गरिमा में यह प्राण-शक्ति के समान है। यह अध्यात्म-प्रधान संस्कृति है । यम, नियम, व्रत, संयम, स्वाध्याय की संस्कृति है। प्रस्तुत संस्कृति का यह शाश्वत ध्येय रहा है कि जीवन का लक्ष्य भोग नहों योग है, संग्रह नहीं त्याग है, राग नहीं विराग है, अंधकार नहीं प्रकाश है, मृत्यु नहीं . अमरता है।
जैन संस्कृति ने आध्यात्मिक जागरण और सामाजिक क्रान्ति के इतिहास में महत्त्वपूर्ण योगदान किया। प्रतिभासम्पन्न मूर्धन्य मनीषियों, ऋषियों के चिन्तन और मनन की अन्तःसलिलाओं द्वारा भारतीय मानस को सदैव उर्वर और प्रकाशपूर्ण बना कर चिरन्तन एवं सनातन सत्यों का उद्घाटन किया है। उसी संस्कृति के उद्गाता, सजग प्रहरी, अनन्त आस्था के आयाम, अन्तर के तेज से दीप्तिमान् मुखमण्डल, उन्नत और प्रशस्त भाल, अन्तरभेदिनी दृष्टियुक्त उज्ज्वल नयन कमल, जन मंगल का उपदेश देती मुखरित प्रज्ञा, प्रभावपूर्ण व्यक्तित्व से विभूषित श्रद्धया गुरुवर्या श्री श्री उमरावकुंवरजी म. सा. "अर्चना" हैं। आप अपने साधनामय जीवन के पचास वर्ष पूर्ण कर रही हैं। यह लम्बी अवधि शास्त्रानुशीलन, स्वाध्याय, लोक जागरण, धर्म-प्रभावना, सेवा एवं ध्यान-योग की दृष्टि से अत्यन्त गौरवपूर्ण रही है। इस अवसर पर आपके बहुमान हेतु एक विराट अभिनन्दन ग्रंथ समर्पित किया जा रहा है। यह साधनासम्पन्न साधकों का अभिनन्दन है। साधक साधना का सम्मान करता है और संसारी साधक का अभिनन्दन । साधना परम तत्त्व मोक्ष की उपासना है। परम साधना का उदात्त संकल्प, समुद्यम आप जैसे विरलतम व्यक्तित्व में ही पाया जा सकता है।
व्यापक, विराट्, ऊर्जस्वल व्यक्तित्व के परिचय, प्रशस्ति को शब्द-शृखला की कड़ियों में आबद्ध करना सूर्य को दीपक दिखाने के सदृश है । आपके गुणों का
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