________________
सहयात्रिणी साध्वी द्वारा गुरुणी सा० के ज्ञानालोक में
निमज्जित व्यक्तित्व का उद्घाटन मेरी आस्था की प्रेरणास्त्रोत
1 महासती श्री उम्मेदकुवरजी म० सा०
ग्राप मेरी आस्था की प्रेरणास्रोत हैं। आपके विषय में लिखने के लिए लेखिनी उठाई है तो अब मन में अनंत भावोमियाँ मचल उठी हैं, उनकी अभिव्यक्ति के लिए मेरे पास शब्दों का अभाव है। आपके अनमोल गुण तो गुलाब की महक की तरह हैं जिसे अनुभव तो किया जा सकता है लेकिन लिखा नहीं जा सकता है, कि वह कैसी है ? मैं गत सैंतीस वर्षों से आपके साथ ऐसे हूँ जैसे काया के साथ छाया रहती है । इन वर्षों में मैंने प्रतिपल आपके ज्ञानालोक में डूबे महान् व्यक्तित्व को देखा है। आपके विषय में कुछ कह पाना वैसे ही कठिन है जैसे गूंगा कोई मिठाई खाये और उसके प्रास्वाद को ग्रहण करे, लेकिन किसी को बता न सके कि यह प्रास्वाद कैसा है । मेरी दृष्टि में आप अनुपमा हैं
मैंने देखा है चहुँ ओर, तुझसा मिला न कोई और । गुरुणीसा कहूं मैं पुकार-पुकार,
आपसे होगा मेरा बेड़ा पार ।। आपका जीवन उस स्वर्ण के समान है जो परिस्थितियों की प्राग में तपकर कुन्दन हो गया है । वे लोग और ही होते होंगे जो विपरीत परिस्थितियों की प्रांधी में उखड़ जाते होंगे । आपने प्रतिपल विपरीत परिस्थितियों का सामना किया लेकिन कभी उनके सामने झुके नहीं अपितु उन्हें भी अपनी साधना के संगीत में ढाल लिया। नियति ने जन्म से ही आपकी परीक्षा लेनी प्रारम्भ कर दी थी। एक शिशु के लिए उसकी माता का अांचल सुखस्थली होता है। उसकी छाया में वह दुःख की धूप से मुक्ति पा लेता है । माँ की गोद उसके लिये स्वर्ग होती है । माँ के हृदय की धड़कनों में स्वर्गीय संगीत होता है, लेकिन आपका दुर्भाग्य ! अभी पाप सात दिन की ही थीं कि माता का देहान्त हो गया। ममता का आँचल चिता की अग्नि में जल गया। किशोरावस्था की दहलीज पर पाँव रखते-रखते अापका विवाह दौराई • (अजमेर ) गांव के श्री चम्पालाल के साथ हुया । लेकिन दुर्भाग्य पीछा करने में
आगे था । आपकी मांग का सिन्दूर भी चिताग्नि में जल गया । इस संसार के आकर्षणों और माया-मोह के बन्धनों के प्रति आपके मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया।
सम्वत् १९९४ अगहन ११ वारे रविवार नोखा में आपने पूज्य गुरुदेव श्री हजारीमलजी म. सा० से दीक्षा ग्रहण की और लोक-कल्याण हेतु साधना के
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org