________________
जय-परम्पर के पाँच पुष्प
विचार एवं प्राचार की दृष्टि से स्थानकवासी परम्परा एक धर्मक्रांति की उपज है । इस धर्मपरम्परा ने विचार के क्षेत्र में उदारता, सहिष्णुता एवं समन्वयवत्ति के साथ-साथ स्वधर्मनिष्ठा एवं धर्म पर बलिदान होने की प्रेरणाएँ दी हैं. तो आचार के क्षेत्र में पवित्रता, निश्छलता, सद्भाव एवं चारित्रिक विकास का द्वार उन्मुक्त किया है । स्थानकवासी परम्परा में आचार्यश्री जयमल्लजी महाराज की परम्परा अपने गौरवमय आदर्शों के प्रति सदा जागरूक एवं गतिशील रही है । जयगच्छ के मुनियों ने आचार-निष्ठा के साथ-साथ सरस्वती के ज्ञानमंदिर में श्रद्धा और भक्ति के पद्यपुष्पों की मालाएँ अत्यन्त विनीत भाव से समर्पित की हैं। भक्ति, सद्भाव एवं काव्यकला-जैसे उन मुनियों की पैतृक विरासत रही है, साथ ही हस्तलेख की सुघड़ता एवं दक्षता में वे मुनि अपनी प्राचीन संस्कृति के संरक्षक के रूप में सतत जागरूक रहे हैं । इस परम्परा में अनेक विद्वान्, प्रवचनकार, कवि, प्रचारक एवं लोकप्रिय मुनियों का प्रादुर्भाव हुआ है, उन सबका परिचय काफी विस्तार चाहता है। हम वह सब न देकर केवल पाँच मुनिराजों का परिचय, वह भी संक्षेप में दे
स्वामी श्री जोरावरमलजी महाराज
__ मेड़ता के पास गोठन स्टेशन है। इसी गोठन स्टेशन के अति निकट एक छोटा-सा गांव है सिहू । वर्तमान समय में तो यहाँ केवल चारण जाति के लोग ही निवास करते हैं किन्तु पहले कुछ घर प्रोसवालों के भी थे। उनमें एक परिवार श्री रिद्धकरणजी बोथरा का भी था। श्री रिद्धकरणजी बोथरा की धर्मपरायणा पतिपरायणा धर्मपत्नी श्रीमती मगनकुंवरबाई की पावन कुक्षि से अक्षय तृतीया वि. सं. १९३६ के शुभ दिन एक पुत्ररत्न का जन्म हुआ, जिसका नाम जोरावरमल रखा गया।
जोरावरमलजी के बाल्यकाल में ही उनके पिता का स्वर्गवास हो गया था। पति के स्वर्गवास हो जाने के पश्चात् श्रीमती मगनकुंवरबाई ने तो दीक्षाव्रत स्वीकार किया ही, अपने पुत्ररत्न जोरावरमल को भी दीक्षा दिलवाकर श्रमण संघ को एक अमूल्य रत्न भेंट किया। दीक्षा का यह दिन था अक्षय तृतीया, वि. सं. १९४४ । अर्थात आपका जन्मदिन और दीक्षादिन दोनों ही अक्षय तृतीया हैं । अापकी दीक्षा नागौर में स्वामीजी श्री फकीरचन्दजी म. सा. के हाथों सम्पन्न हुई थी। स्वामीजी के १७ शिष्यों में आप सबसे छोटे थे।
Jain Educatinternational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org