Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्वार्थचिन्तामणिः
२१
आत्माकी निर्मलता के प्रतिपात और अप्रतिपात करके प्रतिपातसहित और प्रतिपातरहित हो रहे दो अवधिज्ञान के भेद तो इन छह भेदोंमें ही गर्भित हो जाते हैं । कारण कि अनुगामी आदिक छहों भेद कोई तो प्रतिपाती है, और कोई अनुगामी आदिक मेद प्रतिपातरहित हैं । यहांतक अवधिज्ञानको कहनेवाला प्रकरण समाप्त हुआ ।
इस सूत्रका सारांश |
इस " क्षयोपशमनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम् " सूत्रमें प्रकरण इस प्रकार हैं कि प्रथम ही दूसरे अवधिज्ञान के बहिरंगकारण और स्वामी तथा भेदोंका निरूपण करनेके लिये सूत्रका कहना आवश्यक बताकर संयम, देशसंयमको मनुष्य तिर्यचोंके होनेवाले अवधिज्ञानका बहिरंगकारण सिद्ध किया है। चौथे गुणस्थानसे अवधिज्ञानका प्रारम्भ है । अतः कषायोंका उपशमभाव चौथेमें मी थोडा मिल जाता है । पहिले दूसरे गुणस्थान में हो रहे विभंगज्ञानमें भी नारकियोंकी अपेक्षा कुछ मन्दकषाय हैं । संज्ञीके पर्याप्त अवस्था में ही विभंग होता है। तीसरे मिश्रगुणस्थान में अवधि और विमंगसे मिला हुआ मिश्रज्ञान है । वहां भी बहिरंगकारण सम्भवजाता है । सूत्रकार ने श्लेषयुक्त " क्षयोपशम " शब्द दिया है । अतः सभी भेदप्रमेदसहित चार ज्ञानोंके अन्तरंगकारण स्वकीय ज्ञानावरण के क्षयोपशमका निरूपण कर दिया है । इस सूत्र में दोनों ओर " एवकार लगा सकते हो और दोनों ओर एवकार नहीं लगानेपर भी विशेष प्रयोजन सध जाता है । अवधिज्ञानोंके यथायोग्य छह भेदोका लक्षण बनाकर प्रतिपात और अप्रतिपातको इन छहों में अन्तर्भाव कर सूत्रकारकी विद्वत्ता की परममहत्ताको श्रीविद्यानन्द स्वामीने प्रकाश दिया है । जब कि प्रतिपात और अप्रतिपात ये दो भेद छहों भेदों में सम्भव रहे हैं तो छहसे अतिरिक्त दो भेद बढाकर अवधि के आठ भेद करना तो उचित नहीं है । जैसे कि संसारी जीवोंके कायकी अपेक्षा वनस्पति, और ये छइ भेदकर पुनः पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो भेद बढाकर आठ भेद करना अयुक्त है । जब कि छड़ों कार्यों में पर्याप्त और अपर्याप्त भेद सम्भव रहे हैं । अतः पर्याप्त, अपर्याप्तकों जिस प्रकार छहों भेदोंमें गर्भित कर लिया जाता है, या छह पर्याप्त और छह अपर्याप्त इस प्रकार बारह भेद कर व्युत्पत्ति लाभ कराया जाता है, उसी प्रकार यहां भी छह ही भेदकर प्रतिपात और अप्रतिपातको इनमें ही गर्भित कर लेना चाहिये । देशावधि, परमावधि सर्वावधिके छह, चार और तीन भेद हैं । श्री राजवार्तिककारने अनवस्थित मेदको परमावधि में भी स्वीकार किया है । जघन्य, मध्यम, उत्कृष्टरूपसे विषयोंका ग्रहण करना विवक्षित होनेपर अनवस्थित भेद वहां सम्भवता होगा। यहांतक अवधिज्ञानका प्रकरण समाप्त कर दिया है । स्वविशुद्धिविवृद्धिहानितो नुगाम्यादिविकल्पमाश्रितः ॥ प्रतिपक्षविनाशतो भवेत् नृतिरश्चां गुणहेतुकावधिः ॥ १ ॥
पृथ्वी, जल, तेज, वायु,
""