Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ लोकवार्तिके
सम्यग्दर्शन आदि गुणोंकी हानि और संक्केश परिणामोंकी वृद्धि तथा क्षयोपशमविशेषजन्य विशुद्धिकी न्यूनता हो जानेसे अवधिज्ञान हीयमान माना गया है। इन तीनों अवधिज्ञानों में विशुद्धि हानिके सद्भावकी सिद्धि हो जाने से वह देशावधि ही एक हीयमान हो रही आम्नायसे चली आ रही है। बढ़ते हुये चारित्र गुणवाले मुनि महाराजोंके परमावधि और सर्वावधि होती हैं । अतः ये हीयमान नहीं हैं ।
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अवस्थितोऽवधिः शुद्धेरवस्थानान्नियम्यते । सर्वोङ्गिनां विरोधस्याप्यभावान्नानवस्थितेः ॥ १५ ॥
कोई अवधि तो सम्यग्दर्शन आदि गुणोंके और क्षयोपशमजन्य विशुद्धिके उतनाका उतना ही अवस्थान बना रहनेसे अवस्थित हो रही नियत की जाती है। यह अवस्थित भेद जीवोंके हो रहे सभी तीनों अवधिज्ञानों में घटित हो जाता है। विरोध दोष होने का भी यहां अभाव है । सर्वावधि में तो अनवस्थितिका सर्वथा निषेध है । तथा अवस्थित हो रही देशावधि, परमावधि में भी अवस्थितिका निषेध है । अतः तीनों ही अवस्थितमेदवाळीं हैं।
विशुद्धेरनवस्थानात्सम्भवेदनवस्थितः ।
स देशावधिरेवैकोऽन्यत्र तत् प्रतिघाततः ॥ १६ ॥
चित्रको उपयोगी भीतिकी विशुद्धिके समान क्षयोपशमजन्य आत्माकी विशुद्धिका अनवस्थान हो जानेसे अवधिका अनवस्थित भेद सम्भवता है । उनमें यह देशावधि ही एक अनवस्थित है । अन्य दो अवधियोंमें उस अनवस्थितिका प्रतिघात | विशेष यह कहना है कि किन्हीं किन्हीं आचार्योंने परमावधिका भी भेद अनवस्थित मान लिया है ।
प्रोक्तः सप्रतिपातो वाऽप्रतिपातस्तथाऽवधेः । सोऽन्तर्भावममीष्वेव प्रयातीति न सूत्रितः ॥ १७ ॥
उक्त छह भेदोंके अतिरिक्त तिसी प्रकार प्रतिपात सहितपना और प्रतिपातरहितपना ये दो भेद भी अवधिज्ञान के श्री अकलंकदेवने बढिया कहे हैं । किन्तु ये भेद इन छह भेदोंमें ही भले प्रकार अन्तर्भावको प्राप्त हो जाते हैं। इस ही कारण सूत्रकारने अवधिके आठ भेदोंका सूत्र द्वारा सूचन नहीं किया है ।
विशुद्धेः प्रतिपाताप्रतिपाताभ्यां सप्रतिपाताप्रतिपाती ह्यवधीषट्स्वेवान्तर्भवतः । अनुगाम्यादयो हि केचित् प्रतिपाताः केचिदमतिपाता इति ।