Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थश्लोकवार्तिके
देशावधिः परमावधिः सर्वावधिरिति च परमागमप्रसिद्धानां पूर्वोक्तयुक्त्या सम्भावितानामत्रोपसंग्रहात् ।
देशावधि, परमावधि, और सर्वावधि इस प्रकार परमदेवाधिदेव अंतिसर्वज्ञकी आम्नायसे चले आरहे आगममें प्रसिद्ध हो रहे भेदोंका भी इन्हीं भेदोंमें यथायोग्य (करीब करीब ) संग्रह हो जाता है । अतीन्द्रिय पदार्थीको साधनेवाली पूर्वमें कहीं गयीं युक्तियोंकरके देशावधि आदि भेदोंकी सम्भावना की जा चुकी है । उनके सद्भावका कोई बाधक प्रमाण निश्चित नहीं है। असम्भवद्वाधकत्वादस्तित्यसिद्धिः । देशावधिका जघन्य अंश मनुष्य तियंचोंमें पाया जाता है। अन्य मनुष्य, तिच, अथवा नारकी, सामान्य देव, ये देशावधिके मध्यम अंशोंके स्वामी हैं । देशावधिका उत्कृष्ट अंश तो मुनियों के पाया जाता है । देशावधि द्वारा एक समय कम पल्यकालके आगे पीछेकी बातोंका और तीन लोकमें स्थित हो रहे रूपीद्रव्योंका देश प्रयक्ष हो जाता है । देशावधिका जघन्य क्षेत्र या काल तो उत्सेधाङ्गुलके असंख्पातवें भाग और आवलीके असंख्यातवें भाग भूतभविष्य हैं। मध्यम योगसे उपार्जित किये गये औदारिकके विनसोपचयसहित संचित नोकर्मद्रव्यमें लोक प्रदेशोंका भाग देनेपर जो मोटा स्कन्धपिण्ड लब्ध आता है, उतने द्रव्यको जघन्य देशावधि ज्ञान जान लेता है। और उत्कृष्ट देशावधि तो कार्मण वर्गणामें एक बार ध्रुवहारका भाग देनेपर जो छोटा टुकडा लब्ध आता है, उसको जानती है । इससे कोटे टुकडेको देशावधि नहीं जान पाती है । जघन्यदेशावधि कालके असंख्यात भाग पर्यायोंको भावकी अपेक्षा जानती है । और उत्कृष्ट देशावधिज्ञान द्रव्यके असंख्यात लोकप्रमाण पर्यायोंका प्रयक्ष कर लेता है । इसके आगेके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावोंको परमावधि जानता है। सर्वावधिका विषय और भी बढा हुआ है । चरमशरीरी मुनिमहाराजके परमावधि और सर्वावधिज्ञान होते हैं।
कुतः पुनरवधिः कश्चिदनुगामी कश्चिदन्यथा सम्भवतीत्याह ।
क्या कारण है कि फिर कोई तो अवविज्ञान अनुगामी होता है ? और कोई उसके भेद अन्य प्रकारसे यानी अवस्थित, अनवस्थित, आदि रूपकरके सम्भव रहे हैं ! बताओ । देशावधिके अनुगामी, अननुगामी, वर्द्धमान, हीयमान, अवस्थित, अनवस्थित, ये छह भेद हैं। और परमावधिके अनुगामी, अननुगामी, बर्द्धमान, अवस्थित, ये चार भेद हैं। तथा सर्वावधिके अनुगामी, अननुगामी अवस्थित ये तीन भेद हैं ! प्रतिपाती और अप्रतिपाती ये भेद भी यथायोग्य जोडे जा सकते हैं। इस प्रकार शिष्यकी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य उत्तर कहते हैं ।
विशुद्धयनुपमात्पुंसोऽनुगामी देशतोऽवधिः । परमावधिरप्युक्तः सर्पावधिरपीदृशः ॥ ११ ॥