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आयारंग रति और अरति में समभाव रखने का उपदेश देते हुए कहा है:
का अरई ? के आणंदे ? इत्थंपि अग्गहे चरे |
सव्वं हासं परिश्चज्ज आलीनगुत्तो परिव्वए । -क्या अरति है और क्या आनन्द है ? इनमें आसक्ति न रख कर संयमपूर्वक विचरण करे। सब प्रकार के हास्य का परित्याग करे, तथा मन, वचन और काया का गोपन करके संयम का पालन करे।
सम्यक्त्व अध्ययन में तीर्थंकरभाषितधर्म, अहिंसा, देहदमन, संयम की साधना आदि का विवेचन है। यहाँ देह को कृश करने, मांस और शोणित को सुखाने तथा आत्मा को दमन करने का उपदेश है।
लोकसार अध्ययन में कुशील-त्याग, संयम में पराक्रम, चारित्र, तप आदि का प्ररूपण है | बाह्य शत्रुओं से युद्ध करने की अपेक्षा अभ्यन्तर शत्रु से जूझना ही श्रेष्ठ बताया है। इन्द्रियों की उत्तेजना कम करने के लिये रूखा-सूखा आहार करना, भूख से कम खाना, एक स्थान पर कायोत्सर्ग से खड़े रहना और दूसरे गाँव में बिहार करने का उपदेश है। इतने पर भी इन्द्रियाँ यदि वश में न हों तो आहार का सर्वथा त्याग कर दे, किन्तु स्त्रियों के प्रति मन को चंचल न होने दे।
धूत अध्ययन में परीषह-सहन, प्राणिहिंसा, धर्म में रति आदि विविध विषयों का विवेचन है। मुनि को उपधि का त्याग करने का उपदेश देते हुए कहा है कि जो मुनि अल्प वस्त्र रखता है अथवा सर्वथा वस्त्ररहित होता है, उसे यह चिन्ता नहीं होती कि उसका वन जीर्ण हो गया है, उसे नया वस्त्र लाना है। अचेल मुनि को कभी तृण-स्पर्श का कष्ट होता है, कभी गर्मी-सर्दी का और कभी दंशमशक का, लेकिन इन सब कष्टों को वह यही सोच कर सहन करता है कि इससे उसके कर्मों का भार हलका हो रहा है।