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पचनन्दिपञ्चविंशतिका। प्रकार जो, यति मूलगुणोंको छोड़कर शेष उत्तरगुणोंकेपालनकरनेके लिये प्रयत्न करते हैं तथा निरंतर पूजा आदिको चाहते हैं उनको आचार्य मूलछेदक दण्ड देते हैं इसलिये मुनियोंको प्रथम मूलगुणव्रत पालना चाहिये पाछे उत्तरगुणोंका पालन करना चाहिये ॥ ४॥
आचेलक्य मूलगुण किसलिये पाला जाता है इसवातको आचार्य दिखाते हैं। म्लाने क्षालनतः कुतः कृतजलाद्यारम्भतः संयमो नष्टे व्याकुलचित्तताथ महतामप्यन्यतः प्रार्थनम् । कोपीनेऽपि हृते परैश्च झटिति क्रोधःसमुत्पद्यते तन्नित्यं शुचिरागहृछ्रमवतां वस्त्रं ककुम्मण्डलम् ॥४१॥
अर्थः-यदि संयमी वस्त्र रक्खे तो उसके मलिन होनेपर घेोनेकेलिये जल आदिका उनको आरंभ करना पड़ेगा और यदि जल आदि का आरम्भ करना पड़ा तो उनका संयम ही कहां रहा तथा यदि वह वस्त्र नष्ट हो गया तब उनके चित्तमें व्याकुलता होगी तथा उसके लिये यदि वे किसीसे प्रार्थना करेंगे तो उनकी अयाचक वृत्ति छट जावेगी और वस्त्रों को छोड़कर यदि वे कौपीन (लगोट) ही रक्खे तोभी उसके खोजाने पर उनको क्रोध पैदा होगा इस लिये समस्तवखोंका त्यागकर मुनिगणोंका नित्य पवित्र रागका नाशक दिशाका मंडल ही वस्त्र है ऐसा समझना चाहिये ॥ ४१ ।।
आचार्यवर लोचनामक मूलगुणको दिखाते हैं। काकिण्या अपि संग्रहो न विहितः क्षौरं यया कार्यते चित्तक्षेपकृदस्त्रमात्रमपिवा तत्सिद्धये नाश्रितम् । हिंसातुरहोजटाद्यपि तथा यूकाभिरप्रार्थनेवैराग्यादिविवर्धनाय यतिभिः केशेषु लोचः कृतः ॥४२॥
अर्थः-मुनिगण अपने पास एक कौड़ी भी नहीं रखते जिससे कि वे दूसरेसे मुण्डन करा सकें तथा मुण्डनके लिये छुरा कैंची आदि अस्त्रभी नहीं रखते क्योंकि उनके रखनेसे क्रोधादिकी उत्पत्तिसे चित्त बिगड़ता है तथा वे जटाभी नहीं रख सक्तें क्योंकि जटाओंमें अनेक जू आदि जीवोंकी उत्पति होती है इस
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