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का२२॥
पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । आचार, तथा उत्तमक्षमा उत्तममार्दव उत्तमआर्जव उत्तमसत्य उत्तमशौच उत्तमसंयम उत्तमतप, उत्तमत्याग, उत्तमआकिंचन्य तथा उत्तमब्रह्मचर्य इसप्रकारका दश धर्म, तथा बारह प्रकारका संयम, तथा बारह प्रका रका तप, और आठ प्रकारके मूलगुण, तथा चौरासीलाख उत्तरगुण, तथा मिथ्याल मोह मदका त्याग, और शम दम ध्यान तथा प्रमाद रहित स्थिति और वैराग्य, तथा जिनशासनकी महिमाके बढ़ाने वाले अने कगुण और सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र स्वरूप निर्मलरत्नत्रय तथा अंतमें समाधि विद्यमान हैं. ऐसा मुनियोका धर्म अक्षयपद आनन्दके लिये है ॥ ३८ ॥
खं शुद्ध प्रविहाय चिद्गुणमयभ्रान्त्याणुमात्रेऽपि यत् संवन्धाय मतिःपरे भवति तद्वंधाय मूढात्मनः। तस्मात्त्याज्यमशेषमेव महतामेतच्छरीरादिकं तत्कालादि बिनादियुक्तित इदं तत्यागकर्मव्रतम् ॥३९॥ . अर्थ-अपने शुद्धचैतन्यको छोड़कर परमाणुमात्र परपदार्थों में भी चैतन्यगुणके भ्रमसे यदि मूढ़पुरुषोंकी बुडि लगजावे तो उसबुडिसे केवल कर्मवंधही होता है इसलिये सज्जनपुरुषको शरीर आदिके समस्तपदा का अवश्य त्याग करदेना चाहिये यदि आयुःकर्म के प्रवलहोनेसे शरीरादिका त्याग न हो सके तो शरीरादिके त्याग करने के लिये मुनिवत ही धारण करने योग्य है क्योंकि मुनिव्रत धारण करनाही शरीर आदिके त्याग की क्रिया है ॥ ३९ ॥ मुक्त्वा मूलगुणान्यतेर्विदधतः शेषेषु यत्नं परं दण्डो मूलहरो भवत्याविरतं पूजादिकं वाञ्छतः । एकं प्राप्तमरेःप्रहारमतुलं हित्वा शिरश्छेदकं रक्षत्यङ्गुलिकोटिखण्डनकरं कोऽन्यो नरो बुद्धिमान्॥४॥
अर्थः-युद्धकरते समय अनेकप्रकारके प्रहारहोते हैं उनमें कई एकतो शिरके छेदनेवाले होतेहैं तथा कई एक अगुलिके अग्रभागके छेदनेवाले होते हैं उनमें यदि कोईपुरुष शिरके छेदनेवाले प्रहारको छोड़कर अगुलीके अग्रभागको छेदनकरने वाले प्रहारसे रक्षाकरे तो उसका जिसप्रकार उससे रक्षा करना व्यर्थ है उसी
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