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पअनन्दिपञ्चविंशतिका । सङ्गं विमुञ्चत बुधाः कुरुतोत्तमानां गन्तुं मतिर्यदि समुन्नतमार्ग एव ॥ ३४ ॥
अर्थः हे भव्यजीवो यदि तुम उत्तममार्गमें जानेकेलिये चाहते हो तो तुम कदापि मिथ्या दृष्टि विपरीत बुडी मार्गभ्रष्ट छली व्यसनी दुष्टजीवोंके साथ संबंध मत करो यदि तुमको संबंध ही करना है तो उत्तम मनु ष्योंके साथ ही संबंध करो।
भावार्थ-जैसी संगति की जाती है उसी प्रकारके फलकी प्राप्ति होती है यदि तुम मिथ्यादृष्टि आदि । दुष्टपुरुषों के साथ संगति करोगे तो तुमको कदापि उत्तममार्ग आदिकी प्राप्ति नहीं हो सक्ती यदि तुम उत्तम मनुष्योंकी संगति करोगे तो तुमको नानाप्रकारके गुणोंकी तथा उत्तममार्गकी प्राप्ति होगी इसलिये यदि तुम उत्तम मार्गकी प्राप्ति करना चाहते हो तो तुमको उत्तम मनुष्योंकी ही संगति करना चाहिये ।। ३४ ॥ ।
स्निग्धैरपि बजत मा सह सङ्गमेभिः क्षुद्रैः कदाचिदपि पश्यत सर्षपाणाम् ।
होऽपि सङ्गतिकृतः खलताश्रितानां लोकस्य पातयति निश्चितमशु नेत्रात् ॥ ३५॥ अर्थः-यह नियम है कि दुष्टपुरुष जब अपना काम निकालना चाहते हैं तब मीठे बचनोंसे ही निकालते हैं किन्तु आचार्य इसबातका उपदेश देते हैं कि दुष्टपुरुष चाहे जैसे सरल तथा मिष्टवादी क्यों न हों तो भी उनके साथ कदापि सज्वानोको संबंध नहीं करना चाहिये क्योंकि इसबातको प्रत्यक्ष देखो कि जब सरसों खलरूपमें परिणत हो जाती है उससमय उससे निकलाहुवा तेल आंखोंमें लगाते ही मनुष्योंको अश्रुपात करा देता है।
भावार्थ-खलका अर्थ खल भी होता है तथा दुष्ट भी होता है उसीप्रकार स्नेहका अर्थ प्रीति भी होता है तथा तेल भी होता है जबतक सरसों अपने रूपमें रहती है तबतक वह किसीका कुछ भी बिगाड़ नहीं करती किन्तु जिस समय उसकी खलरूप पर्याय पलट जाती है उससमय उससे उत्पन्नहुवा तेल आँखों में लगाते ही मनुष्योंको अश्रुपात करा देता है। उसीप्रकार जबतक मनुष्य सज्जन रहते हैं तबतक तो वे किसीका कुछ भी
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