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पहला अधिकार- १५
ग्रन्थनिका किंचित् अभ्यास करि टीकासहित समयसार, पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, नियमसार, गोमट्टसार, लब्धिसार, त्रिलोकसार, तत्त्वार्थसूत्र इत्यादि शास्त्र अर क्षपणासार, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, अष्टपाहुड, आत्मानुशासन आदि शास्त्र अर श्रावक, मुनिके आचारके प्ररूपक अनेक शास्त्र अर सुष्टुकथासहित पुराणादि शास्त्र इत्यादि अनेक शास्त्र हैं तिन विषै हमारे बुद्धि अनुसार अभ्यास वर्ते है । तिसु करि हमारे हू किंचित् सत्यार्थ पदनिका ज्ञान भया है। बहुरि इस निकृष्ट समय विषै हम सारिखे मंद बुद्धिनित भी हीन बुद्धि के धनी धने जन अवलोकिए है। तिनिकों तिन पदनिका अर्थज्ञान होने के अर्थि धर्मानुरागके वशर्तें देशभाषामय ग्रन्थ करनेकी हमारे इच्छा भई । ताकरि हम यहु ग्रन्थ बनावै हैं सो इस विषै भी अर्थसहित तिनही पदनिका प्रकाशन हो है। इतना तो विशेष है जैसे प्राकृत संस्कृत शास्त्रनि विषै प्राकृत संस्कृत पद लिखिए है तैसे इहाँ अपभ्रंश लिये या यथार्थपनाको लिये देशभाषारूप पद लिखिए है परन्तु अर्थविषै व्यभिचार कछू नाहीं है । ऐसे इस ग्रंथपर्यन्त तिन सत्यार्थ पदनिकी परम्परा प्रवर्ते है ।
इहां कोऊ पूछें कि परम्परा तो हम ऐसे जानी परन्तु इस परम्पराविषै सत्यार्थ पदनि ही की रचना होती आई, असत्यार्थ पद न मिले, ऐसी प्रतीति हमको कैसे होय । ताका समाधान
असत्यपद रचना का प्रतिषेध
असत्यार्थ पदनिकी रचना अतितीव्र कषाय भए बिना बनै नाहीं, जातै जिस असत्य रचनाकरि परम्परा अनेक जीवनिका महा बुरा होय आपको ऐसी महाहिंसाका फलकार नरक निगोदविषै गमन करना होय सो ऐसा महाविपरीत कार्य तो क्रोध मान माया लोभ अत्यन्त तीव्र भए ही होय । सो जैनधर्मविषै तो ऐसा कषायवान् होता नाहीं । प्रथम मूल उपदेशदाता तो तीर्थंकर केवली सो तो सर्वथा मोहके नाशर्तें सर्व कषायनि करि रहित ही हैं। बहुरि ग्रन्थकर्ता गणधर वा आचार्य ते मोहका मन्द उदयकार सर्व बाह्य अभ्यन्तर परिग्रहको त्यागि महा मंदकषायी भए हैं, तिनिके तिस मंदकषायकरि किंचित् शुभोपयोगहीकी प्रवृत्ति पाइए है और किछु प्रयोजन ही नाहीं । बहुरि श्रद्धानी गृहस्थ भी कोउ ग्रन्थ बनाये है सो भी तीव्रकषायी नाहीं है, जो वाकै तीव्रकषाय होय तो सर्वकषायनिका जिस तिस प्रकार नाशकरणहारा जो जिनधर्म तिस विषै रुचि कैसे होइ अथवा जो मोहके उदयतें अन्य कार्यनिकरि कषाय पोष हैं तो पोषो परन्तु जिनआज्ञा भंगकरि अपनी कषाय पोषै तो जैनीपना रहता नाहीं, ऐसे जिनधर्म्मविषै ऐसा तीव्रकषायी कोऊ होता नाहीं जो असत्य पदनिकी रचनाकार परका अर अपना पर्याय- पर्यायविषै बुरा करै ।
इहां प्रश्न- जो कोऊ जैनाभास तीव्रकषायी होय असत्यार्थ पदनिको जैन शास्त्रनिविषै मिलावे, पीछे ताकी परम्परा चलि जाय तो कहा करिये ?
ताका समाधान - जैसे कोऊ साँचे मोतिनिके गहनेविषै झूठे मोती मिलावे परन्तु झलक मिलै नाहीं ता परीक्षाकरि पारखी ठिगावता भी नाहीं, कोई भोला होय सो ही मोती नामकरि ठिगाये है। बहुरि ताकी परम्परा भी चालै नाहीं, शीघ्र ही कोऊ झूठे मोतिनिका निषेध करे है। तैसे कोऊ सत्यार्थ पदनिके समूहरूप जे जैनशास्त्र तिनिविषै असत्यार्थ पद मिलावै परन्तु जैनशास्त्रके पदनिविषै तो कषाय मिटावनेका वा लौकिक