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मोक्षमार्ग प्रकाशक-७४
व्यापार किए काहूकै नफा हो है, काहूकै टोटा हो है; काहूक शत्रु भी किंकर हो है, काहूकै पुत्र भी अहितकारी हो है तातें जानिए है, पदार्थ आप ही इष्ट अनिष्ट होते नाही, कर्म उदयके अनुसार प्रवर्ते है। जैसे काहूक किंकर अपने स्वामी के अनुसार किसी पुरुषको इष्ट अनिष्ट उपजावै तो किछू किंकरानेका कर्त्तव्य नाहीं, उनके स्वामी का कर्तव्य है। जो किकनिहाँको इन्ट अनिष्ट माने सो झूठ है। तैसे कम के उदयतें प्राप्तभए पदार्थ कर्मके अनुसार जीवको इष्ट अनिष्ट उपजादे तो किछु पदार्थनिका कर्तव्य नाही, कर्म का कर्त्तव्य है। जो पदार्थनिहीको इष्ट अनिष्ट मानै सो झूठ है। तात यह बात सिद्ध भई कि पदार्थनिको इष्ट अनिष्ट मानि तिनविषै रागद्वेष करना मिथ्या है।
इहाँ कोऊ कहै कि बाह्य वस्तुनिका संयोग कर्म निमित्तत बने है तो कर्मनिविष तो रागद्वेष करना।
ताका समाधान-कर्म तो जड़ हैं, उनके किछू सुख-दुःख देने की इच्छा नाहीं । बहुरि वे स्वयमेव तो कर्मरूप परिणमे नाही, याके भावनिकै निमित्त कर्मरूप हो हैं; जैसे कोऊ अपने हाथकरि भाटा (पत्थर) लेई अपना सिर फोरै तो भाटाका कहा दोष है? तैसे जीव अपने रागादिक भावनिकरि पुद्गलको कर्मरूप परिणमाय अपना बुरा करै तो कर्मका कहा दोष है। ताः कर्मस्यों भी राग द्वेष करना मिथ्या है। या प्रकार परद्रव्यनिको इष्ट अनिष्ट मानि रागद्वेष करना मिथ्या है। जो परद्रव्य इष्ट अनिष्ट होता अर तहाँ राग द्वेष करता तो मिथ्या नाम न पाता। वे तो इष्ट अनिष्ट हैं नाही अर यह इष्ट अनिष्ट मानि रागद्वेष करै, तातै इन परिणामनिको मिथ्या कह्या है! मिथ्यारूप जो परिणमन ताका नाम मिथ्याचारित्र है। अब इस जीवके रागद्वेष होय है, ताका विधान या विस्तार दिखाइए है
_राग-द्वेष की प्रवृत्ति प्रथम तो इस जीवकै पर्यायविषै अहंबुद्धि है सो आपको वा शरीर को एक जानि प्रवर्ते है। बहुरि इस शरीरविषै आपको सुहावै ऐसी इष्ट अवस्था हो है तिसविषै राग कर है। आपको न सुहावै ऐसी अनिष्ट
१. कथंचित दुःख का कारण कर्म हैं, कथंचित नहीं हैं :
आठ द्रव्यकर्म दुःख के कारण हैं। ये जीव को संसार में रुलाते हैं अतः कर्म ही कथंचित् दुःख के कारण है। प्रश्न - श्री चन्द्रप्रभ जिनपूजा की जयमाला में श्री रामचन्द्र जी ने लिखा है कि करम विचारे कौन भूत मेरी अधिकाई।
अगनि सहे घमघात, सौह की संगति पाई ।।
अतः कर्म सुख दुःख देते हैं, इस बात को पं. रामचन्द्र जी ने काट दिया है। उत्तर- भैया, आप प्रायः हर प्रकरण अधूरा ही पढ़ कर निर्णय कर लेते हैं, अतः यह आक्षेपक स्थिति आपकी हुई है। पं. रामचन्द्र जी ने उसी जयमाला में लिखा है-.
देखो करम अपार, सुभट जड़, चेतन नाही। घेतन . करि रक, चोर गिय बोथत जाही। सातो अपनि मंझार, नरक वारुण दुःख पेही।
कोऊ शरनो नाही, परम मिन, निश्च येही ।।५।। अ- पं. रामचन्द्र जी श्री चन्द्रप्रभु जिनपूजा की जयमाला में कहते हैं कि हे भव्यो ! देखो, ये कर्म अपार है, सुपट