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परिशिष्ट - ३०६
जाय। न्याय का एक दोष। कापोतलेश्या - परनिन्दा,
आत्मप्रशंसा, इतरनिगोद . असराशि से निकल कर पुनः निगोद
छिद्रान्वेषणता, विवेकहीनता आदि रूप में जाने वाले जीव।
परिणाम विशेष उत्कर्षण - कर्मों की स्थिति व अनुभाग का बढ़ना। कुटीचर - हिन्दू संन्यासियों का एक भेद । उदय - कर्मों का फल देना।
कुलिंगी - मिथ्यावेशधारी पुरुष। उदीरणा - समय के पहले ही कर्मों का फल केवली - सर्वज्ञ। देना।
केवलदर्शन - त्रिकाल और त्रिलोक को युगपत् देखना। उद्वेलना - एक कर्मप्रकृति का सजातीय कर्मप्रकृति केवलज्ञान - समस्त पदार्थों की त्रिकाल और त्रिलोक रूप परिणमन करा कर नाश करना।
में होने वाली समस्त पर्यायों को एक उपभोग - बार-बार भोग में आ सकने वाली
सापानने मला आता वस्तु।
कृतकृत्य सम्यग्दृष्टि -मिध्यात्व और मिश्रमोहनीय को नष्ट उपमान - प्रमाण का एक भेद। एक की समानता
कर अन्तर्मुहूर्त में क्षायिक सम्यग्दृष्टि से दूसरे का ज्ञान करना।
होने वाला जीव। उपयोग - जीव की ज्ञानदर्शन शक्ति। जानने- कृष्णलेश्या - निर्दय, दुष्ट और अत्याचारी, परिणाम देखने रूप चेतना का परिणाम विशेष ।
विशेष। उपशमकरण - कमों का अनुदय।
गणथर - तीर्थंकरों के साक्षात शिष्य जो उनके उपदेशों उपाथिकर्म।
को बारह अंगों में निबद्ध करते हैं। (1) पोसह - उपवास।
गति -
गति नाम कर्म के उदय से प्राप्त होने एकेन्द्रिय - स्पर्शन इन्द्रिय वाले जीव।
वाली जीव की पर्याय। एकाशन - दिन में एक बार भोजन करना। गुण - जो द्रव्य में रहता है परन्तु जिसमें एकान्त पम - अनेक धर्मों की सत्ता की अपेक्षा नहीं
स्वयं गुण नहीं रहता। करके वस्तु को सर्वथा एक रूप मानना। गुणव्रत - मूलगुणों और अणुव्रतों को दृढ़ करने वाले व्रत। एषणा समिति - निदोष विधि से आहार लेना। गुणश्रेणी निर्जरा - असंख्यातगुणी-२ निर्जरा। औदारिक शरीर - मनुष्य और तिर्यञ्चों का स्थूल शरीर। | गुणस्थान - मोह और योग के भाव तथा अभाव औपाधिक भाव - कर्मजन्य भाव।
से होने वाला आत्मा का क्रमिक अंग - गौतम गणधर कृत जैनों का मूल साहित्य ।
विकास। अन्तरकरण - आगे उदय में आने वाले कर्म के कुछ गुप्ति - पन, वचन, काय की प्रवृत्ति को भली निषेकों को बीच से उठाकर आगे-पीछे
प्रकार रोकना। करना।
प्रदेषक- सोलहवें स्वर्ग से ऊपर और अनुदिशों अन्तर्मुहूर्त - आवली से ऊपर और मुहूर्त से नीचे
से नीचे के देवों का निवासस्थान। का समय।
गृहीतमिष्मात्य - दूसरे के उपदेश आदि से ग्रहण किया करण - परिणाम । इन्द्रिय । गणितसूत्र।
गया मिथ्यात्व। कर्म -
योग और कषाय के निमित्त से आत्मा पातिपाकर्म - आत्मगुणों का घात करने वाले कर्म। से सम्बन्ध को प्राप्त होने वाला एक घक्षुदर्शन - चक्षुज्ञान से पहले होने वाला पान। प्रकार का पुदगल द्रव्य, जो आत्मा के चारित्रमोह - चारित्र का घातक मोहनीय ।
असली स्वभाव को ढकता है। चेतना - ज्ञान-दर्शन शक्ति। कषाय - जो आत्मा को कषता, दुःख देता और चौइन्द्रिय - चार (स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु) इन्द्रियों पराधीन करता है। क्रोध, मान, माया,
वाला जीव। लोभादि रूप परिणाम।
चैत्य
प्रतिमा, पूर्ति।