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परिशिष्ट - ३०७
अमस्थ -
जन्म - जन्मकल्याणक -
जिनवाणी - जुगुप्सा - ज्योतिष्क
तादात्म्य - तीन इन्द्रिय -
तीर्थकर -
तुषमासभिन्न -
त्रस -
अल्पज्ञानी। केवलज्ञान से पहले का | देशघाती - . . . आत्मगणों का आंशिक घात करने वाला सब ज्ञान।
कर्म। जीव के नवीन पर्याय का उत्पाद। देशचारित्र - बारह व्रतरूप श्रावकों का चारित्र। तीर्थंकरों के जन्मसमय देवों द्वारा मनाया देशद्रती - श्रावक के व्रतों का पालक पंचमगुण जाने वाला उत्सव।
स्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि जीव। तीर्थंकरों का उपदेश।
दो इन्द्रिय - स्पर्शन और रसना इन्द्रिय वाले जीव । ग्लानि भाव।
द्रव्य
गुण और पर्याय सहित वस्तु। सूर्य चन्द्र ग्रह नक्षत्र तारा आदि द्रव्यकर्म - कर्मशक्ति को प्राप्त पुद्गल पिण्ड, ज्योतिष्क जाति के देय।
ज्ञानाबरणादि कर्म। गुण और गुणी का अभेद।
द्रव्यप्राण- पाँच इन्द्रियों, तीन बल, आयु और तीन (स्पर्शन, रसना, घ्राण) इन्द्रिय
श्वासोच्छ्वास। वाले जीव
द्रव्यलिंग - मुनिवेशी किन्तु अंतरंग से प्रमतसंयत तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध करने वाले
गुणस्थान से रहित, १ से ५ तक धर्म के प्रवर्तक आत्मा विशेष।
किसी एक गुणस्थानवाला जीव। धान्य और उसके छिलके की तरह
द्रव्यदृष्टि -
सामान्य को ग्रहण करने वाली दृष्टि। आत्मा और शरीर को अलग-अलग
द्रव्यार्थिक नय। समझना।
द्रव्यमन - हृदय में आठ पाँखुड़ी के कमल के एकेन्द्रिय को छोड़ कर शेष सब संसारी
आकार एक प्रकार की शारीरिक रचना जीव।
जो सोचने-विधारने में सहायक है। ज्ञान से पहले होने वाला उपयोग। द्रव्येन्द्रिय - स्पर्शन, रसना आदि बाह्य इन्द्रियाँ । उपयोग से उपयोगान्तर होने में आत्मा ध्यान
सब विकल्प छोड़ कर चित्त को एक की अवस्था विशेष।
लक्ष्य में स्थिर करना। सम्यग्दर्शन को घात करने वाला मोहनीय नय -
जो यस्तु के एकदेश को जानता है। कर्म।
यस्तु का आंशिक आन। बंध, उत्कर्षण, संक्रमण, अपकर्षण, निक्षेप - प्रमाणों और नयों से प्रचलित उदीरणा, सत्त्व, उदय, उपशम, नित्ति,
लोक-व्यवहार। निकाचना-कर्मों में होने वाली ये दस | नामनिक्षेप - गुण न होने पर भी पदार्थ को उस क्रियायें।
नाम से कहना जैसे - जन्मान्ध का उत्पाद पूर्व से लेकर विद्यानुयाद पूर्य
नाम सुलोचन रख लेना। तक दस पूर्वो के झाता।
नारकी
नरक के दुःख भोगने वाला जीव। तीर्थकर सर्वज्ञ की वाणी।
निगोद - जिनका आहार, श्वासोच्छ्वास, जन्मअनन्तानुबन्धी के विसंयोजनपूर्वक होने
मरण और लक्षण समान होता है, वे वाला उपशम-सम्यक्त्व । उपशम श्रेणी
साधारण जीव। चढ़ने के सम्मुख अवस्था में होने नित्पनिगोद - वह जीव जिसने कभी उस पर्याय नहीं वाला सम्यक्त्व। यह सम्यक्त्व वेदक
पाई है। सम्यकवी को ही प्राप्त होता है। जब निर्जरा - थे हुए कर्मों का आत्मा से अलग कि प्रथमोपशम सम्यक्त्व को मिथ्यावृष्टि
होना। जीव प्राप्त करता है।
निर्ग्रन्थ - परिग्रह रहित, दिगम्बर भाव। वर आदि की चाह से रागीद्वेषी देवों । निषेक - एक समय में उदय में आने वाले की पूजा।
कर्मपरमाणुओं का समूह।
वर्शनमोह
दशकरण -
दशपूर्वषारी -
दिव्यध्यनिद्वितीयोपशम -
देवमूढ़ता -